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द्वितीयाकार
असंयत सम्यादृष्टिका स्वरूप वृत्तमोहस्य पाकेन जनिताविरतिर्भवेत् ।
जीवः सम्यक्त्वसंयुक्तः सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥२१॥ अर्थ-चारित्रमोहके उदयसे जिसके अबिरति-असंयमदशा उत्पन्न हुई है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि होता है।
भावार्थ-मिथ्यात्वादिनिक तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम होनेसे जिसे सम्यक्त्व तो हो गया है परन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियोंका उदय रहनेसे जो चारित्र धारण करनेके सम्मुख नहीं होता वह असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवी जीव कहलाता है। अनादिमिथ्यादष्टि जीव सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर प्रथम गुणस्थानसे इसी गुणस्थानमें आता है । यद्यपि इस जीवके इन्द्रियोंके विषयोंसे तथा प्रस-स्थावर जीवोंके घातसे निवृत्ति नहीं है-त्यागरूप परिणति नहीं है तथापि इसकी परिणति मिथ्यादष्टि जीवकी अपेक्षा बहुत ही शान्त होती है। इसके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार गुण प्रकट हो जाते हैं इसलिये मांसभक्षण आदि निन्दनीय कार्यों में इसकी प्रवृत्ति नहीं होती। इस गुणस्थानमें यदि मनुष्य और तिर्यञ्चके आयुबन्धका अवसर आता है तो नियमसे वैमानिक देवोंकी ही आयुका बन्ध होता है तथा नरक और देवगतिमें आयुबन्धका अवसर आता है तो नियमसे मनुष्यआयुका ही बंध होता है ।। २१ ॥
देशसंयत गुणस्थानका स्वरूप पाकक्षयात्कषायाणामप्रत्याख्यानरोधिनाम् ।
विरताविरतो जीवः संयतासंयतः स्मृतः ।।२२।। अर्थ--अप्रत्याख्यानावरणकषायोंके क्षयोपशमसे जो जीव विरत तथा अविरतदशाको प्राप्त है वह संयतासंयत अथवा देशसंयत गुणस्थानवर्ती माना गया है।
भावार्थ-अ-एकदेश–प्रत्याख्यान-चारित्रको घातनेवाली कपाय अप्रत्यख्यानावरण कहलाती है। सम्यग्दष्टि जीवके जब इस कषायका क्षयोपशम होता है तब वह एकदेशसंयम धारण करता है। एक देशसंयममें त्रसजीबोंकी संकल्पी हिंसा, स्थावरजीवोंका निरर्थक घात, स्थूल असत्य, स्थूल चोरी, परस्त्री या परपुरुष-सेवन तथा असीमित परिग्रहसे निवृत्ति हो जाती है। पर सजीवोंकी आरम्भी, विरोधी तथा उद्यमी हिंसा और स्थावरजीवोंका प्रयोजनानुसार घात, अल्प असत्य, सार्वजनिक जल तथा मिट्टी आदिकी चोरी,स्वस्त्री या स्वपुरुष-सेवन तथा सीमित परिग्रहसे निवृत्ति नहीं होती इसलिये यह एक ही कालमें विरता