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द्वितीयाधिकार
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मिथ्यात्व - दर्शनमोहके उदयसे जो अतत्त्वश्रद्वान होता है उसे मिथ्यात्व
कहते हैं |
अज्ञान - ज्ञानावरणके उदयसे जो ज्ञान प्रकट नहीं होता है वह अज्ञान कहलाता है । क्षायोपशमिकभावका अज्ञान मिथ्यात्वके उदयसे दूषित रहता है और ओमिकभावका अज्ञान अभावरूप होता है। जैसे अवधिज्ञानावरणका उदय होनेसे अवधिज्ञानका अभाव है ।
असिद्धत्व - आठ कर्मो का उदय रहने से जीवकी जो सिद्धपर्याय प्रकट नहीं होती वह असिद्धत्वभाव है । इस असिद्धत्वभावका सद्भाव चौदहवें गुणस्थान तक रहता है ।
असंयतत्व- चारित्रमोहका उदय होनेसे जो संयमका अभाव है उसे असंयतत्व कहते हैं । इसका सद्भाव प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक रहता है ॥ ७ ॥
पारिणामिकभावके भेव
जीवत्वं चापि भव्यत्वमभव्यत्वं तथैव च । पारिणामिकभावस्य भेदत्रितयमिष्यते ॥ ८ ॥
अर्थ - पारिणामिकभावके जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन मेद माने जाते हैं ।
भावार्थ - इनका स्वरूप इस प्रकार है-
जीवस्वभाव-व्यवहारनयसे इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणोसे पहले जीवित रहना, वर्तमानम जीवित रहना और आगे जीवित होना जीवत्वभाव है तथा निश्चयनयसे अपने चैतन्यभावसे युक्त रहना जीवभाव है ।
भव्यत्वभाव---जो सम्यग्दर्शनादिगुणोंसे युक्त हो सकता है उसे भव्य कहते हैं तथा उसकी परिणतिको भव्यत्वभाव कहते हैं ।
अभव्यस्वभाव — जो सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे युक्त न हो सकता हो उसे अभव्य कहते हैं तथा उसकी परिणतिको अभव्यत्वभाव कहते हैं ।
जो भव्य है वह सदा भव्य ही रहता है और जो अभव्य है वह सदा अभव्य ही रहता है । अभव्य जीव सदा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही रहता है । परन्तु भव्यजीव प्रारम्भसे चौदहवें गुणस्थान तक रहता है। मोक्षमें भव्यत्वभाव नहीं रहता है | अभव्यजीव यद्यपि मोक्षका पात्र नहीं तथापि मिध्यात्वकी मन्दतामें मुनिव्रत धारणकर नवम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है ॥ ८ ॥
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