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द्वितीयाधिकार ६ क्षायिकभोग--भोगान्तरायके क्षयसे जो प्रकट होता है उसे क्षायिकभोग कहते हैं। इससे पुष्पवृष्टि आदि कार्य होते हैं ।
७ क्षायिकउपभोग-उपभोगान्तरायके क्षयसे जो प्रकट होता है उसे क्षायिकउपभोग कहते हैं । इससे सिंहासन, चमर तथा छत्रत्रय आदि विभूति प्राप्त होती है।
८क्षायिकलाभ-लाभान्तरायकर्मके क्षयसे जो प्रकट होता है वह क्षायिकलाभ कहलाता है। इससे शरीरमें बलाधान करनेवाले अनन्त-शुभ-सूक्ष्म-पुद्गल परमाणुओंका सम्बन्ध शरीरके साथ होता रहता है, जिससे आहारके बिना ही देशोनकोटिवर्ष पूर्व तक शरीर स्थिर रहता है।
९ क्षायिकदर्शन-दर्गनावरणकर्मके क्षयसे जो दर्शन प्रकट होता है उसे क्षायिकदर्शन कहते हैं । इसीका नाम केवलदर्शन है। यह केवलज्ञानका सहभावी है अर्थात् केवलज्ञानके साथ उत्पन्न होता है तथा उसीके समान तेरहवें, चौदहवें गणस्थानमें और उसके बाद सिद्धपर्याय में अनन्तकाल तक रहता है। क्षायिकवीर्य आदि पाँच लब्धियाँ भी तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानमें तथा उसके बाद सिद्ध अवस्थामें भी रहती हैं। क्षायिकभावके उक्त नौ भेद नौ लब्धियोंके नामसे भी प्रसिद्ध है।।६।।
औषयिकभावके भेद चतस्रो गतयो लेश्याः षट् कषायचतुष्टयम् । वेदा मिथ्यात्वमज्ञानमसिद्धोऽसंयतस्तथा । इत्यौदयिकभावस्य स्युभंदा एकविंशतिः ।। ७ ॥
(षट्पदम् ) अर्थ-चार गतियाँ, छह लेश्याएं, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यात्व, अज्ञान, असिद्धत्व और असंयतत्व ये औदयिकभावके इक्कीस भेद हैं।
भावार्य-गति आदिकका स्वरूप इस प्रकार है। गति–तिनामकर्मके उदयसे जीवकी जो अवस्था विशेष होती है उसे गति कहते हैं। इसके चार भेद हैं-१ नरकगति, २ तिर्यञ्चगति, ३ मनुष्यगति और ४ देवगति ।
लेश्या-कषायके उदयसे अनुरञ्जित योगोंकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। इसके छह भेद हैं-१ कृष्ण, २ नील, ३ कापोत, ४ पीत, ५ पद्म और ६ शुक्ल । इन लेश्यावालोके चिह्न इस प्रकार हैं
कृष्णलेश्या-तीन क्रोध करनेवाला हो, किसीसे बुराई होनेपर दीर्घकालतक बैर न छोड़े, बकनेका जिसका स्वभाव हो, धर्म तथा दयासे रहित हो, स्वभावका दुष्ट हो तथा कषायको तीव्रताके कारण किसीके वशमें न आता हो वह कृष्णलेश्याका धारक है।