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तत्त्वार्थसार प्रथम गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं तथा अवधिदर्शन चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है ।। ४-५ ।।
सायकमायके मेध सम्यक्त्वज्ञानचारित्रवीर्यदानानि दर्शनम् ।
भोगोपभोगौ लाभश्च क्षायिकस्य नवोदिताः ।।६।। अर्थ-सायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान), क्षायिकचारित्र, क्षायिकवीर्य, क्षायिकदान, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिकलाभ और क्षायिकदर्शन ( केवलदर्शन ) ये नौ क्षायिकभाव कहे गये हैं।
भावार्थ-क्षायिकसम्यक्त्व आदि भावोंका स्वरूप इस प्रकार है
१ क्षायिकसम्यक्त्व-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे जो सम्यग्दर्शन प्रगट होता है वह क्षायिकसम्यक्त्व कहलाता है। यह कर्मभमिजके ही उत्पन्न होता है। चौथेसे सातवें गुणस्थानके बीच में कभी भी हो सकता है तथा क्षायोपमिक सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है । इसका' सद्भाव चारों गतियोंमें पाया जाता है। इस सम्यग्दर्शनका धारक जीव उसो भबमें, तीसरे भवम अथवा चौथे भवमें नियमसे मोक्ष चला जाता है। संसारमें रहनेको अपेक्षा यह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गणस्थान तक रहता है उसके बाद सिद्ध अवस्थामें भी अनन्तकाल तक रहता है।
२ क्षायिकज्ञान-ज्ञानावरणकर्मके क्षयसे जो ज्ञान प्रकट होता है वह क्षायिकज्ञान कहलाता है । इसे ही केवलज्ञान कहते हैं । इस ज्ञानका धारक लोकअलोकके समस्त पदार्थोंको एक साथ जानता है । यह तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में तथा सिद्ध अवस्थामें भी रहता है।
३क्षापिकचारित्र-समस्त चारित्रमोहनीयका क्षय होनेपर जो चारित्र प्रकट होता है उसे क्षायिकचरित्र कहते हैं ! यह बारहवं आदि गुणस्थानोंमें होता है । इसे क्षायिक यथाख्यातचारित्र भी कहते हैं । __ ४ क्षानिकवीर्य-वीर्यान्तरायकर्मका क्षय होनेपर जो वीर्य प्रकट होता है उसे क्षायिकवीर्य कहते हैं। यही अनन्त बल कहलाता है ।
५ क्षायिफवान-दानान्तरायकर्मके क्षायसे जो प्रकट होता है उसे क्षायिकदान कहते हैं। यह अनन्तप्राणियोंके समूहपर अनुग्रह करनेवाले अभयदानरूप होता है।