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द्वितीयाधिकार २क्षायोपशमिकभाष–वर्तमानकालमें उदय आनेवाले सर्वघातिस्पर्द्धकोके निषेकोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका गानाथारूप उपशम राम बाशिका संदरः रहोपर जो भाव होता है उसे क्षायोपशमिकभाव काहते हैं । इसीका दूसरा नाम मिश्रभाव है।
क्षायिकभाव-आत्मासे कर्मोका सर्वथा दुर होना क्षय कहलाता है। क्षयके समय जो भाव होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं।
४ औदयिकभाव-द्रव्यादि निमित्तके वशसे कर्मोका फल प्रास होना उदय कहलाता है। उदयके समय जो भाव होता है उसे औदयिकभाव कहते हैं।
५ पारिणामिकभाव-कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे निरपेक्ष जीवका जो भाव है उसे पारिणामिकभाव कहते हैं ।। ३ ।।
औपशमिकभावके भेद भेदौ सम्यक्त्वचारित्रे द्वावापशमिकस्य हि । अर्थ-औपमिकभावके दो भेद हैं-१ औपशमिक सम्यक्त्त्व और औपशमिक चारित्र। ___ भावार्थ-उपशम अवस्था सिर्फ मोहनीयकर्ममें होती है। मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय। इन दोनों भेदोंके उपशमसे दो भाव प्रकट होते हैं-१ औपमिकसम्यक्रत्व और २ औपशमिकचरित्र । इनके लक्षण इस प्रकार है
१. औपशामिकसम्यक्त्व-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानृबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे श्रद्धागुणकी जो पर्याय प्रकट होती है उसे औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । औपशमिक सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं.-१ प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और २ द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन | प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनका लक्षण पर कहा जा चुका है। उपशम श्रेणी चढ़नेके सम्मुख क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव जव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंबोजना-अप्रत्याख्यानावरणादिरूप परिणति करता है तब उसके द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन चतुर्थसे लेकर सप्तम गुणस्थान तक होता है और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन चतुर्थ से ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। यद्यपि इसकी उत्पत्ति सप्तम मुणस्थानमें होती है तथापि उपशम श्रेणीवाला जोव उपरितन गुणस्थानोंसे पतन कर जब नीचे आता है तब चतुर्थादि गुणस्थानोंमें भी इसका सद्भाव रहता है। अनादि मिथ्याष्टि जीवको जब सम्यग्दर्शन होता है तब सर्व प्रथम औपशर्मिक सम्यग्दर्शन हो होता है।