________________
तस्वार्थसार
पदार्थोके साथ होनेवाले उनके सन्निकर्षको प्रमाण मानते हैं परन्तु जैनदर्शनमें जाननेका मूल साधन होनेके कारण ज्ञानको ही प्रमाण माना गया है । इसके अभावमें इन्द्रियाँ और सन्निकर्ष अपना कार्य करने में असमर्थ रहते हैं ।। १५ ।।
परोक्षप्रमाणका लक्षण समुयासानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत् ।
पदार्थानां परिज्ञानं तत्परोक्षमुदाहृतम् ॥१६॥ अर्थ-गृहीत अथवा अगृहीत परकी प्रधानतासे जो पदार्थोंका ज्ञान होता है उसे परोक्षप्रमाण कहा गया है।
भाषार्थ---जो ज्ञान परकी प्रधानतासे होता है उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं । परके दो भेद हैं-१. समुपात्त और २. अनुपात्त । जो प्रकृतिसे ही गृहीत है उसे समुपात कहते हैं, जैसे स्पर्शनादि इन्द्रियाँ । तथा जो प्रकृतिसे गृहीत न होकर पथक रहता है उसे अनुपात्त कहते हैं, जैसे प्रकाश आदि । इस तरख इन्द्रियादिक गृहीत कारणों और प्रकाश आदि अगृहीत कारणोंस जो ज्ञान होता है वह परोक्षप्रमाण कहलाता है ।। १६ ।।।
प्रत्यक्षप्रमाणका लक्षण इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षामुक्तमव्यभिचारि च |
साकारग्रहणं यत्स्यासत्प्रत्यक्ष प्रचक्ष्यते ||१७|| अर्थ-इन्द्रिय और मनकी अपेक्षासे मुक्त तथा दोषोंसे रहित पदार्थका जो सविकल्पज्ञान होता है उसे प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं।
भावार्थ-साकार और अनाकारके भेदसे पदार्थका ग्रहण दो प्रकारका होता है । जिसमें घट-पटादिका आकार प्रतिफलित होता है उसे साकारग्रहण कहते हैं और जिसमें किसी वस्तुविशेषका आकार प्रतिफलित न होकर सामान्य ग्रहण होता है उसे अनाकारग्रहण कहते हैं। साकारग्रहणको ज्ञान और अनाकारग्रहणको दर्शन कहते हैं । जिस ज्ञानमें इन्द्रिय और मनकी सहायता आवश्यक नहीं होती, जो विशदरूप होनेके कारण दोषरहित होता है तथा जिसमें पदार्थोंके आकार विशेषरूपसे प्रतिभासित होते हैं उसे प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं ।। १८ ।।
सम्पमानका स्वरूप और उसके भेद सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थव्यवसायात्मकं विदुः । मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययकेवलम् ।।१८|