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चार
तस्वार्थसार सकता है, यह समझानेके लिये संवर और निर्जराका कथन है तथा अजीवका सम्बन्ध छूट जानेपर जीवकी क्या अवस्था होती है, यह बतानेके लिये मोक्षका वर्णन किया गया है। सात तत्त्वोंमें जीव और अजीत्र ये दो मूल तत्त्व हैं और शेष पाँच तत्व उन दो तत्त्वोंके संयोग तथा वियोगसे होनेवाली अवस्थाविशेष हैं। ७-८ ॥
चार निक्षेप तत्त्वार्थाः 'सन्त्यमी नामस्थापनाद्रव्यभावतः ।
न्यस्यमानतयादेशात् प्रत्येक स्युश्चतुर्विधाः ।।२।। अर्थ-ये सातों तत्त्वार्थ नाम, स्थापना, द्रव्य और भावनिपेक्षके द्वारा व्यवहारमें आते हैं, इसलिए प्रत्येक तत्त्वार्थ चार-चार प्रकारका होता है। जैसे कामगोव, स्थापना जी, दयनीय और भावना आदि ।। ९ ॥
नामनिक्षेपका लक्षण या निमित्तान्तरं किश्चिदनपेक्ष्य विधीयते ।
द्रव्यस्य कस्यचित्संज्ञा तन्नाम परिकीर्तितम् ||१०|| अर्थ-जाति, गुण, क्रिया आदि किसी अन्य निमित्तको अपेक्षा न कर किसी द्रव्यकी जो संशा रखी जाती है वह नामनिपेक्ष कहा गया है ।। १० ।।
स्थापनानिक्षेपका लक्षण सोऽयमित्याकाष्ठादेः सम्बन्धेनान्यवस्तुनि ।।
यद्वयवस्थापनामात्र स्थापना साभिधीयते ।।१।। अर्थ-पांसा तथा काष्ठ आदिके सम्बन्धसे 'यह वह है' इस प्रकार अन्य वस्तुमें जो किसी अन्य वस्तुकी व्यवस्था की जाती है वह स्थापनानिक्षेप कहलाता है।
भावार्थ-किसीमें किसी अन्यकी कल्पना करनेको स्थापना कहते हैं। इसके दो भेद हैं—१. तदाकार स्थापना और २. अतदाकार स्थापना। जैसा आकार है उसमें उसी आकारवालेकी कल्पना करना तदाकार स्थापना है, जैसे पार्श्वनाथकी प्रतिमा में पार्श्वनाथ भगवान्को स्थापना करना। और भिन्न आकारवालेमें भिन्न आकारवालेकी कल्पना करना अतदाकार स्थापना है, जैसे शतरंजकी गोटोंमें बजीर, बादशाह आदिको कल्पना करना ॥११ ।। . १ खल्वमी' पाठान्तरम्। २ 'सोध्यमित्यक्षकाष्ठादौ सम्बन्धेलान्य वस्तुनः' पाठान्तरम् ।