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प्रश्रम अधिकार अथ-जी स्थपरको जानता है उसे सन्यज्ञान कहते हैं। इसके पांच भेद हैं-१ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्य यज्ञान, और ५ केवलज्ञान ।।१८।।
मतिज्ञानके भेव ओर उसकी उत्पत्ति के कारण स्वसंवेदनमक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा । प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा ॥१९।। बुद्धिर्मेधादयो याश्च मतिज्ञानभिदा हि ताः ।
इन्द्रियानिद्रियेभ्यश्च मतिज्ञानं प्रवर्तते ॥२०॥ अर्थ-स्वसंवेदनज्ञान, इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला विज्ञान, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, स्वार्थानुमिति, बुद्धि और मेधा आदि जो ज्ञान हैं वे मतिज्ञानके भेद हैं। यह मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे प्रवृत्त होता है।
भावार्थ-शरीरके भीतर रहनेवाला, ज्ञान-दर्शन लक्षणसे युक्त 'मैं' एक पृथक पदार्थ है, ऐसा जो अपने आप ज्ञान होता है उसे स्वसंवेदन कहते है। स्पर्शनादि इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयोंका जो ज्ञान होता है वह इन्द्रियोस्थ विज्ञान कहलाता है। इसे ही मति कहते हैं । अतीत वस्तुको स्मृतिको स्मरण कहते हैं । 'यह वह है' इस प्रकार प्रत्यक्ष और स्मतिके योगरूप जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। 'जहाँ-जहाँ धम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है' इस प्रकारके व्याप्तिज्ञानको ऊह या तर्क कहते हैं। साधनके द्वारा साध्यका स्वयंको ज्ञान होना स्वार्थानुमिति है किसी पदार्थको देखते ही उसको विशेषताको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको बुद्धि कहते हैं और किसी पदार्थको इस तरह ग्रहण करना कि उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाये उसे मेघा कहते हैं। स्वसंवेदनको आदि लेकर ये ज्ञानके जितने रूप हैं वे सब मतिज्ञानके भेद हैं। यह मतिज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होता है। संज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीवके पांचों इन्द्रियों और मनके निमित्तसे होता है तथा अन्य जीवोंके जितनी इन्द्रियां होती है उन्हीं के निमित्तसे होता है ।। १९-२० 11
__ मतिज्ञानके अन्य भेड अवग्रहस्ततस्त्वीहा ततोऽत्रायोऽथ धारणा । बहोर्बहुविधस्यापि शिप्रस्यानिःसृतस्य च ॥२१॥ अनुक्तस्य ध्रुवस्येति सेतराणां तु ते मताः ।
व्यक्तस्यार्थस्य विधेयाश्चत्वारोऽवग्रहादयः ॥२२॥ १. 'ध्रुवस्यात् पाठान्तरम् ।