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तस्वार्थसार
इनके अवान्तरभेद तथा स्वरूप आदिका वर्णन गोम्मटसार जीवकाण्डकी श्रुतज्ञानप्ररूपणासे जानना चाहिये ।। २४-२५ ।।
अयविज्ञानका स्वरूप तथा उसके भेद
परापेक्षां विना ज्ञानं रूपिणां भणितोऽवधिः ||२५|| अनुगोऽननुगामी च तदवस्थोऽनवस्थितिः | वर्धिष्णुयमानश्च षविकल्पः स्मृतोऽवधिः ||२६|| देवानां नारकाणां च स भवप्रत्ययो भवेत् । मानुषाणां तिरश्चां च क्षयोपशमहेतुकः ||२७||
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अर्थ- इन्द्रियादिक परपदार्थोकी अपेक्षाके विना रूपी पदार्थोंका जो ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान कहा गया है। अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, वर्धमान और हीयमानके भेदसे वह अवधिज्ञान छह प्रकारका स्मरण किया गया है। इनके सिवाय अवधिज्ञानके भवप्रत्यय और क्षयोपशमहेतुक इस प्रकार दो भेद और माने गये हैं। इनमें देव और नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा मनुष्य और तिर्यञ्चोंके क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान होता हैं ।
भावार्थ - अवधिज्ञान प्रत्यक्षज्ञानों में सम्मिलित है। इसको उत्पत्ति बाह्य निमित्तों की अपेक्षा के विना होती हैं । यह अवधिज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल. भावको मर्यादा लिये हुए रूपीद्रव्योंको जानता है । यहाँ रूपीद्रव्यसे पुद्गलद्रव्य तथा संसारी जीवद्रव्यका ग्रहण है। यह अवधिज्ञान भवप्रत्यय तथा क्षयोपशमहेतुकके भेदसे दो प्रकारका होता है। जो किसी भवका निमित्त पाकर नियमसे प्रकट होता है वह भवप्रत्यय कहलाता है। यह देव और नारकियोंके नियमसे होता है । क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञानके अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, वर्धमान और हीयमानको अपेक्षा छह भेद हैं। जो एक पर्यायसे दूसरी पर्याय में अथवा एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्र में साथ जावे उसे अनुगामी कहते हैं। जो साथ न जावे उसे अननुगामी कहते हैं । जो एक-सा रहे न घटे न बढ़े उसे अबस्थित कहते हैं । जो एक-सा न रहे, कभी घटे कभी बढ़े उसे अनवस्थित कहते हैं । जो उत्पत्ति समयसे लेकर आगे बढ़ता रहे उसे वर्धमान कहते हैं और जो उत्पत्ति के समय से लेकर घटता रहे उसे हीयमान कहते हैं ।
इन भेदोंके सिवाय अवधिज्ञानके देशावधि, परमावधि, और सर्वावधि, ये तीन भेद भी आगममें बताये गये हैं । इनमें देशावधि चारों गतियोंमें होता है परन्तु परमावधि और सर्वाविधि मनुष्यगति में मुनियोंके ही होते हैं ।। २५-२७ ॥