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तत्त्वार्थसार
अर्थ - ये नय यदि परस्पर सापेक्ष रहते हैं तो सम्यग्ज्ञानके हेतु होते हैं और निरपेक्ष रहते हैं तो मिथ्याज्ञानके हेतु होते हैं ।
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भावार्थ- परस्पर विरोधी नयोंमें जब एकको मुख्य किया जाता है तब दूसरेको गौण किया जाता है इस तरह मुख्य और गौणकी पद्धतिसे उनमें परस्पर सापेक्षता बनी रहती है तथा वे वस्तुके यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादन करते समय दूसरे नयको सर्वथा छोड़ दिया जाता है तब वे नय परस्पर निरपेक्ष हो जाते हैं और वस्तुका यथार्थ स्वरूप कहने में असमर्थ हो जाते हैं। यही कारण है कि परस्पर सापेक्ष नयोंको सम्यग्ज्ञानका और परस्पर निरपेक्ष नवोंको मिथ्याज्ञानका हेतु कहा गया है ।। ५१ ॥
पदार्थोंको जानने के उपाय आर्याछन्दः
निर्देश: स्वामित्वं साधनमधिकरणमपि च परिचिन्त्यम् । स्थितिरथ विधानमिति पद् तत्वानामधिगमोपायाः ||२२||
अर्थ – निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तत्त्वोंको जानने के ये छह उपाय हैं ।
भावार्थ -- निर्देश वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश कहलाता है । स्वामित्व — वस्तुके अधिकारको स्वामित्व कहते हैं । साधन - वस्तुकी उत्पत्ति कारणोंको साधन कहते हैं । अधिकरण- वस्तुके आधारको अधिकरण कहते हैं । स्थिति-वस्तु के अस्तित्व कालको स्थिति कहते हैं । विधान - वस्तुके भेदोंको विधान कहते हैं ।
किसी नवीन वस्तुके दिखनेपर सबसे पहले देखनेवालेके मनमें यह जिज्ञासा होती है कि यह क्या है ? इस जिज्ञासाकी पूर्ति करनेवाला निर्देश है। इसके बाद दूसरी जिज्ञासा होती हैं कि यह वस्तु किसकी है ?-- इसका स्वामी कौन है ? इस जिज्ञासाका समाधान करनेवाला स्वामित्व है। इसके अनन्तर जिज्ञासा होती है कि वस्तु किन साधनोंसे बनती है ? इसका उत्तर देनेवाला साधन है । इसके पश्चात् जिज्ञासा होती है कि यह वस्तु मिलती कहाँ है ? इसका उत्तर देनेवाला अधिकरण है । तदनन्तर जिज्ञासा होती है कि यह वस्तु कितने समयतक टिकती है - इसको ग्यारंटी क्या है ? इसका उत्तर देनेवाला स्थिति नामका उपाय है और उसके पश्चात् जिज्ञासा होती है कि यह कितने प्रकारका है ? इसका उत्तर देनेवाला विधान है। इस तरह संसारके प्रत्येक पदार्थोंको जाननेके