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नमः सिद्धेभ्यः श्रीमदमृतचन्द्रमूरिकृतः तत्वार्थसारः
मङ्गलाचरण जयत्यशेषतवार्थप्रकाशि प्रथितश्रियः ।
मोहध्वान्तौघनिभेदि ज्ञानज्योतिर्जिनेशिनः ॥१॥ अर्थ-जिनकी अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरङ्गलक्ष्मी और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरङ्गालक्ष्मी प्रसिद्ध है ऐसे जिनेन्द्रभगवान्की वह ज्ञानरूप ज्योति जयवन्त हैसर्वोत्कृष्टरूपसे विद्यमान है जो कि समस्त समीचीन तत्त्वोंको प्रकाशित करनेवाली है तथा मोहरूपी अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाली है। ___भावार्थ-यहाँ अरहन्त भगवान्के केवलज्ञानका जयघोष किया गया है। चार घातियाकर्मोको नष्ट करनेगे जिन्हें अनन्तज्ञान, अनन्तदान, अनन्तसुख और अनन्तबलरूपी अन्तरङ्गालक्ष्मी प्राप्त होती है तथा अमोक्रवक्ष आदि अष्टप्रातिहार्य जिनके समवसरणकी शोभा बढ़ाते हैं ये अरहन्त कहलाते है । दशम गुणस्थानके अन्तम मोहकर्मका सर्वथा क्षय करनेसे तथा वारहवें गुणस्थानके अन्तमें शेप तीन घातियाकर्मोका क्षय होनेसे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है। यह केवलज्ञान, मोहरूपी अन्धकारके समुहको सर्वथा नष्ट करनेवाला है तथा समस्त पदाथोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला है। जिनागमको प्रामाणिकता सर्वज्ञकी वाणीसे है इसलिये मंगलाचरणके रूपमें यहाँ सर्वज्ञताको मूल कारण जो केवलज्ञान है उसका जयकार किया गया है ।। १॥
प्रन्थकारको प्रतिज्ञा अथ तत्वार्थसारोऽयं मोलमार्गकदीपकः ।
मुमुक्षूणां हितार्थाय प्रस्पष्टमभिधीयते |॥ २॥ अर्थ-अब मोक्षाभिलाषी जीवोंके हित के लिये मोक्षमार्गको दिखलाने हेतु प्रमुख दीपकस्वरूप यह तत्त्वार्थसार नामका ग्रन्थ अत्यन्त स्पष्टरूपसे कहा जाता है ।।२॥