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तत्त्वार्थसार
तदनन्तर पहला अन्धा हाथीकी सूँड पकड़कर प्रसन्न होता हुआ बोला - अहो, मैंने हाथी जान लिया, वह सांपके समान होता है । तदनन्तर दूसरे अन्धेनं विशाल पेटका स्पर्श कर कहा कि हाथी निश्चित हो दीवालरूप होता है । तीसरं अन्धेने हाथीका पैद पकड़कर बड़े गर्व से कहा कि हाथी न तो सर्वके समान है और न दीवाल के सदृश है, यह तो खम्भा के समान है। चौथे अन्धेने फैले हुए कानको पकड़कर कहा कि हाथी पद्धा के समान होता है, इसमें कोई शङ्का नहीं करना चाहिए। पांचवें अन्धेने तीक्ष्ण दाँत हाथ में लेकर माश्वर्य चकित हो कहा कि हाथी न खम्भा के समान है और न पङ्खा के समान है किन्तु शूलके समान है। पश्चात् छटवा अन्धा हाथो की पूंछ पकड़कर बोला कि अरे मूर्खो ! हाथी सचमुच ही रस्सीके समान होता है तुम लोग इस सचाईको क्यों नहीं जानते हो ।
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जिसप्रकार उक्त अंधे पुरुष, हाथोंके एक-एक अंगको लेकर उसे पूरा हाथी मानते हैं उसी प्रकार एकान्तवादी मनुष्य वस्तुके एक-एक धर्मको लेकर उसे ही पूरी वस्तु मानते हैं। परन्तु उनका ऐसा मानना भ्रम है। इसलिये अनेकान्त, जन्मान्ध मनुष्यों के हस्ति विधानके समान एकान्तवादको निषिद्ध करता है ।
उमास्वामी महाराजने 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्रकी रचनाकर यह बताया है कि जीवादि तत्वों का ज्ञान प्रमाण और नयोंके द्वारा होता है। प्रमाण वह है जो कि पदार्थ में रहनेवाले परस्पर विरोधी धर्मोको एक साथ ग्रहण करता है और नय वह है जो कि पदार्थमें रहनेवाले परस्पर विरोधी धर्मोसे एकको प्रमुख और दूसरेको गौण कर विचक्षानुसार ग्रहण करता है । नयोंके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इसतरह दो भेद हैं। अथवा अध्यात्मभाषा में निश्चय और व्यवहार इस प्रकार दो भेद हैं । निश्वयत्तय वस्तुके स्थापित - स्वनिमित्तक शुद्ध स्वरूपको ग्रहण करता हूँ। जैसे जीब ज्ञानदर्शनादिगुणोंने तन्मय एक खण्ड द्रव्य है। और व्यवहारनय वस्तुके पराश्रित — परके निमित्त होनेवाले भावको ग्रहण करता है, जैसे जोव क्रोधादिमान् है । यद्यपि निश्रयनय वस्तुके शुद्धस्वरूपका प्रस्थापक होने से भूतार्थ – सत्यार्थ है और व्यवहारनय अशुद्धस्वरूपका प्रख्यापक होनेसे अभूतार्थअसत्यार्थ है तथापि वस्तुकी निरूपणा में दोनों नयोंको आवश्यकता होती है क्योंकि नयोंका उपयोग प्रतिपाद्य --- शिष्यको योग्यता के अनुसार होता है। इसलिये अमृत चन्द्रसूरिने पुरुषार्थसिद्धमुपायमें कहा है
tयवहारनिश्चय यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः ३
प्राप्नोति वेशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८ ॥ जो शिष्य व्यवहार और निश्चयको यथार्थरूपसे जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् दोनोंमेंसे किसी एक पक्षको नहीं खींचता है किन्तु तत्त्वकी निरूपणाके लिये दोनोंको आ समझता है वही विषय देशनाका पूर्ण फल प्राप्त करता है ।
प्रतिपाद्यकी योग्यता अनुसार नयोका प्रयोग होता है, इसका निर्देश कुन्दकुन्द - स्वामीने समयसारकी निम्न गाथामें बड़े सुन्दर ढंगसे किया है ।