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प्रस्तावना
तथा शरीराबगाहनाका वर्णन कर कौन जीव फिस नरक तक आते हैं और वहाँसे आकर वया-क्या होते है यह सब बताया है। इन सबका आधार राजवातिकको निम्न पंक्तियाँ मालूम होती है
'अयोत्पादः व सेवामिति ? अनोच्यते प्रथमायामसंजिन उत्पश्चन्ते, प्रथमाहितीपयोः सरीसृपाः, तिसृषु पक्षिणः, चतसृषूरगाः, पञ्चसु सिंहाः, षट्सु स्त्रियः, सप्तसु मत्स्यमनुष्याः । न च देवा नारका वा नरकेषु उत्पद्यन्ते ।'
ग़जवातिक पृष्ठ १६८ ज्ञानपीठ शर्मामनिनो यान्ति वंशान्तादच सरीसृपाः । मेघान्ताश्च विहङ्गाश्च अञ्जनान्ताश्च भोगिनः ॥ १४६ ॥ तारिष्टां च सिंहास्तु मघन्यतास्तु योषितः । नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माधवी ताश्च पापिनः ॥ १७ ॥
त० मा अधिकार २ इसी जीवतत्त्वका वर्णन करते हुए उसका निवास बतलान के लिये अपोलोक, मध्यलोक और ऊर्वलोकका भी वर्णन किया है । इस तरह तत्त्वार्थसार के द्वितीयाधिकारमै तत्त्वार्थसत्रके द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्यायका संपूर्ण त्रिपय संचालित किया गया है सथा उससे संबद्ध अन्य विषय भी सर्वार्थ सिद्धि राजातिको लिये गये हैं।
(३) तृतीयाधिकारमें अजीवतत्वका वर्णन करने द्वारा प्रसंगोपात्त छह द्रव्यों का स्वरूप, उनके प्रदेश, कार्य, पुद्गलोंके भेद, अणु ओर स्कन्धका स्वरूप, पुद्गलद्रव्यको पर्याय तथा स्कन्ध बनने की प्रक्रियाका वर्णन किया गया है। इसमें तत्त्वार्थ नब के पञ्चमाध्यायको आधार बनाया गया है । विशद विवेचना के लिये पूज्यपादस्वामी को सर्वार्षसिद्धि टीकाका भी आधार लिया गया है ।
(४ } चतुर्थाधिकारमें आस्रवतत्त्वका वर्णन है। इसके लिय तत्त्वार्थस्त्रके पष्ठ और सप्तम अध्यायको आधार बनाया गया है। ज्ञानावरणादि कमोंके जो आलव सुत्रकारने बतलाये है उनका व्याख्यान करने के बाद अकलं कस्वामीने तत्त्वार्थ राजवातिकमें सूत्रोपात्त कारणोंके सिवाय अन्य जिन कारणोंका विस्तारसे उल्लेख किया है उन कारणों को तत्वार्थसारकारने भो अंगीकृत किया है जिससे विषय अत्यन्त स्पष्ट हो गया है। शुभास्त्रबके वर्णनमें व्रतोंका भी वर्णन आ गया है ।
(५) पश्चमाधिकारमें बन्धतत्वका विस्तारसे वर्णन किया गया है और उसका बाधार तस्वार्थसुत्र के अष्ठमाध्यायको बनाया गया है। इसमें कोको मूल तथा उत्तर प्रकृतियों के नाम, लक्षण तथा उनको स्थिति आदिका अच्छा दिग्दर्शन हुआ है।
(६) षष्ठाधिकारमें संवरतत्वका वर्णन है । इसके लिए तत्त्वार्यसूत्रके नवमाध्याय
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