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(६६) कोंको ऐसा रंग चढा था के,जिससे अनुमान(७५०००)रुपैये धर्ममें खरच किये.यहां रहकर श्रीआ नंदविजयजीने “जैनमत वृक्ष बनाया. तथा इस बखत सुरत शहरमें "हुकममुनि नामा एक "जैनाभास साधु रहते थे; तिसने “अध्यात्मसार"नामा एक ग्रंथ बनाकर प्रसिद्ध किया था.परंतु वह ग्रंथ जैनागमकी शैलिसे तद्दन विरुद्ध होनेसे, बहुत श्रावकोंके मनमें विपरीत श्रद्धान प्रवेश कर गयाथा. इसवास्ते श्रीआनंदविजयजी(आत्मारामजी)ने, अध्यात्मसारमेंसे (१४)प्रश्न निकाले; और हुकम मुनिको श्रावक मारफत खबर दिलवाई कि,"तुह्मारा बनाया अध्यात्मसार ग्रंथ जो जैनमतसे विरुद्ध है उसमेंसे निकाले यह(१४)प्रश्नका उतर देवो.तिसके उत्तरमें हुकममुनिके तरफसे सं. तोषकारक जबाब नहीं मिलनेसे,सुरतके श्रीसंघने वे( १४) प्रश्न और श्रीआनंदविजयजीके और हुकममुनिके दिये उत्तर “धी जैन एसोसिएशन आफ् इन्डीया" (भारतवर्षीय जैनसमाज) ऊपर भेजेगये. वे सर्व प्रश्न, वहांसे हिंदुस्थानके जैनमतके ज्ञाता साक्षर पंडित जैन साधु यतियोंके पास निर्णय करने के वास्ते जगेर भेजे गये, तिन सर्वने पक्षपात रहित होकर,जैन शैलीके अनुसार अपना मंतव्य जाहिर किया कि,"हुकम मुनिके बनाये ग्रंथ अध्यात्मसारमेंसे जो (१४) प्रश्न श्री. आनंदविजयजी (आत्मारामजी) ने निकाले हैं, वे धर्मसे विरुद्ध, और संशयसें भरे हुए हैं; तथा श्रीआनंदविजयजीके दिये उत्तर जैन शास्त्रानुसार है, और हुकममुनिके दिये उत्तर जैन शास्त्रसे विरुद्ध है. देशावरोंसे जैन पंडितोंके पूर्वोक्त अभिप्रायोंको,जैन एशोसिएशन आफ इंडीयाने, अ. पनी सुरत बेंच सभामें, सर्व श्रीसंघको एकत्र करके, संवत् १९४२ का मगसर सुदि १४ के दिन, बांचकर सुना दिये, और सभामें आये हुये हुकममुनिके सेवकोंको खबर दी कि, “सर्व जैन पंडि. तोंके अभिप्राय मुजिब, हुकममुनिका बनाया अध्यात्मसार ग्रंथ, अप्रमाणिक सिद्ध हुआ है, जि. ससे हम भी तिस ग्रंथको, जैन शैलीसे विरुद्ध मानके, हुकममुनिको खबर देते हैं के उनको अपने ग्रंथमेंसें असत्य लिखानका सुधारा करना चाहिये; अथवा तिस लिखानको निकाल देना चाहिये. जबतक इन दोनों बातोंमेंसे एक भी बात वे करेंगे नहीं, तबतक हम तिस पूर्वोक्त ग्रंथको प्रमाणिक नहीं मानेंगे. ऐसा निर्णय करके सभा विसर्जन हुई थी. चौमासेबाद भी कितनाक समयतक पूर्वोक्त कारणसे श्रीआनंदविजयजीका रहना सुरत शहरमेंही हुआ. इस समयमें एक ढुंढक साधु जिसका नाम “ रायचंद " था, और जिसने संवत् १९३९ में पोरबंदर शहरमें फागण वदि १३ को देवजीरिख नामा ढुंढक साधुके पास दीक्षा ली थी, परंतु सम्यक्त्व शल्योद्धार ग्रंथके देखनेसें, ढुंढकमतसें अनास्था होनेसें संवत् १९४२ आश्विन वदि १२ के दिन ढुंढकमतको छोडके श्रीआनंदविजयजी (आत्मारामजी) के पास आकर, संवत् १९४२ मगसर वदि ५ के दिन, शुद्ध सनातन जैनधर्मको अंगीकार किया, और दीक्षा लेकर जैनमतका साधु हुआ, जिसका नाम श्रीआनंदविजयजीने "श्रीराजविजयजी रखा.
सुरत शहेरसें विहार करके श्रीआनंदविजयजी "भरुच" "मियागाम" "डभोई” होकर शहेर "बडौदा में पधारे. और "कस्तूरचंद" मारवाडी सुरत निवासीको दीक्षा देकर "कुंवरविजय" नाम रखा. शहेर बडौदामें “ श्रीशवजय " तीर्थ संबंधी बहुत मुदतकी तकरारका फैसला होनेकी खुश खबर मिलनेसें, और कितनेक श्रावकोंकी प्रेरणासे, इस पवित्र तीर्थ की छाया ( पालिताणामें) चौमासा करनेकी श्रीआनंदविजयजीकी इच्छा हुई. इसवास्ते
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