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द्वादशस्तम्भः।
२९९
॥ अथ द्वादशस्तम्भारम्भः॥ एकादशस्तंभमें जैनाचार्यकृत गायत्रीका व्याख्यान करा, अथ द्वादश स्तंभमें गायत्रीके माननेवालोंका करा व्याख्यान लिखते हैं. जो कि, परस्पर विरुद्ध है; तथाविध संप्रदायके अभावसें. । तत्रादौ सायणाचार्यकृत भाष्यका व्याख्यान करते हैं. ॥
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॥
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ १० ॥ व्याख्या-जो सवितादेव (नो) हमारे (धियः) कर्मोंको, वा धर्मादिविषयबुद्धियोंको (प्रचोदयात् ) प्रेरयेत् प्रेरणा करे ( तत्) तिस सर्व श्रुतियोंमें प्रसिद्ध ( देवस्य ) प्रकाशमान ( सवितुः) सर्वान्तर्यामि होनेकरके प्रेरक जगत्स्रष्टा परमेश्वरका आत्मभूत (वरेण्यं) सर्व लोकोंको उपास्यताकरके और ज्ञेयताकरके सम्यक् प्रकारसें भजने योग्य है (भर्गः) अविद्या और तिसके कार्यको भर्जन (दग्ध ) करनेसें स्वयंज्योतिः परबमात्मक तेजकों (धीमहि) तत् । जो मैं हूं सोइ वोह है और जो वोह है सोइ मैं हूं ऐसे हम ध्यावते हैं । अथवा ' तत् ' ऐसा भर्गका विशेषण है, सवितादेवकें तैसें भर्गको हम ध्यावे हैं — यः' लिंगव्यत्यय होनेसे 'यत् ' जो भर्गः हमारे ‘धियः' कर्मादिकोंको ‘प्रचोदयात् ' प्रेरणा करे 'तत् ' तिस भर्गको हम ध्यावे हैं इति समन्वयः। अथवा । (यः) जो सविता सूर्य (धियः) कर्मोको (प्रचोदयात् ) प्रेरयति प्रेरणा करता है (तस्य ) (सवितुः) तिस सर्वकी उत्पत्ति करनेवाले (देवस्य) प्रकाशमान सूर्यके (तत्) सर्वको दृश्यमान होनेसें प्रसिद्ध (वरेण्यं) सर्बको संभजनीय (भर्गः) पापोंको तपानेवाले तेजोमंडलको (धीमहि) ध्येयताकरके मनसें हम धारण करते हैं ॥ अथवा । भर्गशब्दकरके अन्न कहिये है । (यः) जो सवितादेव (धियः) कर्मोको (प्रचोदयात्) प्रेरणा करता है, तिसके प्रसादसें (भर्गः) अन्नादिलक्षण फलको (धीमहि) धारण करते हैं, तिसके आधारभूत हम होते हैं. इत्यर्थः। भर्गशब्दको
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