Book Title: Tattva Nirnayprasad
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Amarchand P Parmar

View full book text
Previous | Next

Page 843
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षत्रिंशःस्तम्भः। ' अथ द्रव्यार्थिकनयका दूसरा भेद संग्रह नामा, तिसका वर्णन करते हैं:-“ सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः” सामान्यमात्रग्राही जो ज्ञान, सो संग्रह 'मात्रं कात्स्न्येऽवधारणे च मात्रशब्द संपूर्णका और अवधा. रणका वाचक है, 'सामान्यमशेषविशेषरहितं' सामान्य संपूर्णविशेषरहित सत्त्व द्रव्यत्वादिक ग्रहण करनेका शील है ‘सं' एकीभावकरके पिंडीभूत विशेष राशिको ग्रहण करे, सो संग्रह. तात्पर्य यह है “स्वजातेदृष्टेष्टाभ्यामविरोधेन विशेषाणामेकरूपतया यद्रहणं स संग्रहः इति ” स्वजातिके दृष्टेष्टकरके अविरोध विशेषोंको एकरूपकरके जो ग्रहण करे, सो संग्रह, अर्थात् विशेषरहित पिंडीभूत सामान्यविशेषवाले वस्तुको शुद्ध अनुभव करनेवाला ज्ञान विशेष, संग्रहकरके कहा जाता है. सो संग्रह दो प्रकारका है. परसंग्रह (१) अपरसंग्रह (२). संपूर्ण विशेषोंमें उदासीनता भजता हुआ, शुद्धद्रव्यसन्मात्रको, जो माने, सो परसंग्रह है. जैसें विश्व एक है, सत्सें अविशेष होनेसें. ___ अथ परसंग्रहाभासका लक्षण कहते हैं:-सत्ता अद्वैतको स्वीकार करता हुआ, सकलविशेषोंका निषेध करे, सो परसंग्रहाभास. जैसे उदाहरण, सत्ताही तत्व है, तिससे पृथग्भूत विशेषोंके न देखनेसें, इति. अद्वैतवादियोंके जितने मत है, वे सर्व, परसंग्रहाभासकरके जानने; और सांख्यदर्शन भी ऐसेंही जानना. __ अथ दूसरे अपरसंग्रहका लक्षण कहते हैं:-द्रव्यत्वादि अवांतरसामान्योंको मानता हुआ, और तिसके भेदोंमें उदासीनताको अवलंबन करता हुआ, अपरसंग्रह है. जैसें धर्म अधर्म आकाश काल पुद्गल जीवद्रव्योंको द्रव्यत्वके अभेदसें एक मानना. यहां द्रव्यसामान्यज्ञानकरके अभेदरूप छहोंही द्रव्योंको एकपणे ग्रहण करना, और धर्मादि विशेष भेदोंमें गजनिमिलिकावत् उपेक्षा करनी. ऐसेंही चैतन्याचैतन्य पर्यायोंका एकपणा मानना, पर्यायसाधर्म्यतासें. प्रश्नः-चैतन्यज्ञान, और तद्विपरीत अचैतन्य, येह दोनों एक कैसे होसकते हैं? For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863