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तत्त्वनिर्णयप्रासादअर्थः-शब्दनय, शब्दपर्यायके भिन्न भी हुए, द्रव्यार्थका अभेद मानता है. और समभिरूढनय, शब्दपर्यायके भेद हुए, द्रव्यार्थका भी, मेद मानता है. पर्यायशब्दोंके अर्थतः एकत्वकी उपेक्षा करता है. उदाहरण जैसें, 'इंदनादिंद्रः, शकनात् शक्रः, पूर्दारणात् पुरंदरइत्यादिः' इस वाक्य. करके इंद्र शक पुरंदर इत्यादि एकार्थ पर्यायशब्दमें भी, व्युत्पत्तिभेदसें इसके अर्थका भी, भेद मानता है. शब्दके भेदसें, अर्थका भेद, यह नय मानता है. इतितात्पर्यार्थः । ऐसेंही अन्यत्र कलश घट कुट कुंभादिकोंमें जानना. ___ अथ समभिरूढाभास कहते हैं:-पर्यायध्वनियोंके अभिधेयको एकांत नानाही मानना, सो समभिरूढाभास है. उदाहरण जैसे, इंद्रशक्रपुरंदर इत्यादि शब्दोंके भिन्नही अभिधेय हैं, भिन्नशब्द होनेसें. करिकुरंग तुरंग करभशब्दवत्. यहां इंद्रशक्रपुरंदर नाम एक भी है, तो भी भिन्नशब्द होनेसे वाच्यार्थ भी, भिन्न है. जैसें हाथी हिरण घोडा ऊंट आदि भिन्नवाच्य है, तैसें यह भी है. यह समभिरूढाभास है। इतिपर्यायार्थिकस्य तृतीयोभेदः॥३॥
अथ चौथा भेद लिखते हैं:॥" शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविशिष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवंभूतइति ॥”
अर्थः-समभिरूढनयसें इंदनादि क्रियाविशिष्ट इंद्रका पिंड होवे,अथवा न होवे,परंतु इंद्रादिकका व्यपदेश लोकमें, तथा व्याकरणमें,तैसेंही रूढी होनेसें, समभिरूढ. तथाच रूढशब्दोंकी व्युत्पत्ति शोभामात्रही है. 'व्युत्पत्तिरहिता शब्दा रूढा इति वचनात्' एवंभूतनय, जिस समयमें इंदनादिक्रियावि. शिष्ट अर्थको देखता है, तिसकालमेंही इंद्रशब्दका वाच्य मानता है; परंतु तिससे रहित कालमें नही मानता है. इस नयके मतमें तो सर्वाक्रिया शब्दही है. यद्यपि भाष्यादिकमें जाति (१) गुण (२) क्रिया (३) संबंध (४) यदृच्छा (५) लक्षण पांचप्रकारकी शब्दप्रवृत्ति कही है, सो
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