Book Title: Tattva Nirnayprasad
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Amarchand P Parmar

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Page 850
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७३८ तत्वनिर्णयप्रासादछसौ, चारसौ, दोसौ भी, भेद नयोंके होते हैं. तथाहि-जब सामान्यग्राही नैगमकी संग्रहके अंतर्भूत, और विशेषग्राही नैगमकी व्यवहारके अंतर्भूत विवक्षा करीये, तब मूल नय छ होते हैं. एक एकके सौ सौ भेद होनेसें, छसौ भेद होते हैं. । जब नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३, तीन तो अर्थनय और एक शब्दनय, ऐसी विवक्षा करीये, तब चार ४ नय; एकैकके सौ सौ भेद होनेसें चारसौं भेद होते हैं.। और द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, इन दोनोंके सौ सौ भेद होनेसें, दोसो भेद होते हैं. यदि उत्कृष्ट भेद गिणीये तो, असंख्य भेद होते हैं. यदुक्तम् ॥ जावंतो वयणपहा तावंतो वा नया वि सद्दाओ ॥ ते चेव परसमया सम्मत्तं समुदिआ सवे ॥१॥ व्याख्याः -जितने वचनके प्रकार है शब्दात्मक ग्रहण किया हैं सावधारणपणा जिनोंने, वे सर्व नय, परसमय अन्य तीर्थियोंके मत है. और जो अवधारणरहित 'स्यात्' पदकरी लांछित है, वे सर्व नय, इकठे करें, सम्यक्त्व जैनमत है. प्रश्नः-सर्वनय प्रत्येक अवस्थामें मिथ्यात्वका हेतु है तो, सर्व एकठे मिले महामिथ्यात्वका हेतु क्यों नहीं होवेंगे? जैसे कण कणमात्र विष एकठा करे तो, बृद्विष हो जावे है. उत्तरः-परस्पर विरुद्ध भी सर्व नय, एकत्र हुए, सम्यक्त्व होते हैं, एक जैनमतके साधुके वशवर्ति होनेसें. जैसे नाना अभिप्रायवाले राजाके नौकर, आपसमें धन धान्य भूमि आदिकके वास्ते लढते भी हैं, तो भी, सम्यग् न्यायाधीशके पास जावें, तब पक्षपातरहित न्यायाधीश, युक्तिसें झगडा मिटायके मेल कराय देता है, तैसेंही यहां परस्पर विरोधी नय, स्याद्वादन्यायाधीशके वश होके परस्पर एकत्र मिलजाते हैं. तथा बहुते जहरके टुकडे बडे मंत्रवादीके प्रयोगसें निर्विष हुए कुष्ठादिरोगीको दीप अमृतरूप होके परिणमते हैं, तैसें नयस्वरूप भी जानलेना. For Private And Personal

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