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पत्रिंशस्तम्भः। तथा अन्यग्रंथसें व्यवहारनयका कितनाक स्वरूप लिखते हैं:-भेदोपचारकरके जो वस्तुका व्यवहार करे, सो व्यवहारनय. गुणगुणिका (१) द्रव्यपर्यायका (२) संज्ञासंज्ञिका (३) स्वभावस्वभाववालेका (४) कारककारकवालेका (५) क्रियाक्रियावालेका (६) भेदसें जो भेद करे, सो सद्भूतव्यवहार. । १।
शुद्धगुणगुणिका, और शुद्धपर्यायव्यका भेद कथन करना, सो शुद्धसद्भूतव्यवहार. । २।।
उपचरित सद्भूतव्यवहार. तहां सोपाधिक अर्थात् उपाधिसहित गुणगुणिका जो भेदविषय, सो उपचरितसद्भूतव्यवहार. जैसें जीवके मतिज्ञानादिक गुण है. ।३।
निरुपाधिक गुणगुणिकाभेदक, अनुपचरितसद्भूतव्यवहार. जैसे, जीवके केवलज्ञानादि गुण है. । ४।
अशुद्ध गुणगुणिका, और अशुद्ध द्रव्यपर्यायका भेद कहना, सो अशुद्वसद्भूतव्यवहार.। ५।
स्वजातिअसद्भूतव्यवहार. जैसें, परमाणुको बहुप्रदेशी कथन करना. ६॥ विजातिअसद्भूतव्यवहार. जैसें, मतिज्ञान मूर्तिवाला है, मूर्तिद्रब्यसें उत्पन्न होनेसें.।७।
उभयअसद्भूतव्यवहार. जैसे, जीव अजीव ज्ञेयमें ज्ञान है, जीव अजीवको ज्ञानके विषय होनेसें.। ८।
स्वजातिउपचरितासद्भूतव्हवयार. जैसें, पुत्र भार्यादि मेरे हैं.।९।
विजातिउपचरित असद्भूतव्यवहार. जैसें, वस्त्र भूषण हेम रत्नादि मेरे हैं. । १०।
तदुभयउपचरित असद्भूतव्यवहार. जैसें, देश राज्य कीर्ति गढादि मेरे हैं.।११।
अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना, सो असद्भूतव्यवहार.। १२ ।
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