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पंचत्रिंशःस्तम्भः। और सर्वोपरि यह कसर (खामी) थी कि, यह धर्म, केवल अभावरूप था. तिससे सामान्य लोकोंको एकवार इसपर जो रुचि हुइ थी, तिसको कायम रखनेके साधन-अच्छे ग्रंथ-सामान्य लोकोंको, और विद्वान लोकोंको रुचे, ऐसें संग्रह इत्यादि-इस धर्ममें नहीं थे. इसवास्ते कालांतरमें लोकोने वेदांतादि धर्मका सार, शंकरद्वारा स्पष्ट होनेसें, इसको (बौद्धधर्मको) छोड दीया; आपही इस धर्मका नाश हो गया. __ तथा सन १८९५ अकटोबर तारिख १३ भीके छपे गुजराती पत्रमें "प्राचीन गुजरातका एक चित्र (२१)" इस विषयमें लिखा है कि, ब्राह्मणोऊपरांत अन्नसत्रके निर्वाहवास्ते, देवालयके निर्वाहवास्ते, टूटे फूटेके बनानेवास्ते, मठोंके निर्वाहवास्ते, इत्यादि भी दानपत्र मिलते हैं, उसमें वल्लभीके वखतमें बौद्धविहारको दान दीयेका भी प्रमाण मिलता है, ताम्रपत्रोंके दान बहुतकरके स्मार्त्तधर्मके प्रवर्तनवास्ते मालुम होते हैं, परंतु बौद्धधर्म चलता था, उसका ऊपर लिखा प्रमाण मिलता है. इसके सिवाय हीवेनसेंगके पुस्तकोंसें भी भरुच, खेडा, वल्लभी, सुराष्ट्र, मालवादिकोंमें बौद्धधर्मका प्रचार देखनेमें आता है. प्राचीन समयमें उसका जो राजकीय, और दूसरा प्राबल्य था, सो देखने में नहीं आता है. और वो शनैः शनैः (धीमे धीमे) निर्बल होगया होना चाहिये. तो भी, धारवाड जिल्लेके डंबलगाममें एक शिलालेख, इ. स. १०९५ का है. उसमें बुद्धके विहारको, और आर्यतारादेवीके विहारको दान दीये हैं. जिससे देखने में आता है कि, कर्नाटकतरफ, बौद्धधर्म, यावत् इग्यार (११) मे सैकेतक चलता था, और उसको दानादिकोंसें आश्रय मिलता था. कन्हेरीकी गुफामें शक ७७५, और ७९९, के लेख हैं. येह राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्षके खंडणी (मातहत ) कोंकणके शिलारराजा कपर्दीके वखतके हैं. तिसमें भी, बौद्धगुफाको दान कियेका लेख मिलता है. अर्थात् पौराणिक, स्मार्त्तधर्म, और कापालिकमतका शैवधर्म, बहुत प्रबल था; तथापि, बौद्धमत, यावत् बारमे (१२) सैकेतक चालु-विद्यमान रहनेके प्रमाण मिलते हैं.
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