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तत्त्वनिर्णयप्रासादअर्थः-यह सप्तभंगी, प्रतिभंगसकलादेशस्वभाववाली, और विकलादेशखभाववाली है. तिनमें प्रमाणकरके अंगीकार करा, जो अनंतधत्मिक वस्तु, उसको कालादि आठोंकरके अभेदकी प्राधान्यतासें अर्थात् धर्मधर्मीके अभेदकी मुख्यतासें, अथवा कालादि अष्टकरके भिन्नभिन्न स्वरूपवाले भी, धर्मधर्मी है, तो भी, अभेदके उपचारसें, एककालमें कथन करे, ऐसा जो वाक्य, सो सकलादेश है. और इसीका नाम प्रमाणवाक्य है. भावार्थ यह है कि, युगपत् अर्थात् एकहीवार संपूर्ण धर्मोकरके युक्त वस्तुको कालादि अष्टकरके अभेदकी मुख्यता, अथवा अभेदके उपचारकरके प्रतिपादन करता है, सो सकलादेश प्रमाणके आधीन होनेसें है; और सकलादेशमें जो विपरीत है, सो विकलादेश है; अर्थात् क्रमकरके भेदके उपचारसें, अथवा भेदकी मुख्यतासें भेदहीको कहे, सो नयके आधीन होनेसें विकलादेश है. प्रश्नः-क्रम क्या है ? और युगपत् क्या है?
उत्तरः-जब अस्तित्वादि धर्मोंकी, कालादि अष्टकरके भेदसें कथन करनेकी इच्छा होवे, तब एक शब्दको अनेक अर्थके वोधन करानेकी शक्ति न होनेसे क्रम होता है; और जब तिनही धर्मोंका कालादि अष्टकरके अभेदस्वरूप माने, तब एकही शब्दकरके एक धर्मके बोधन करानेद्वारा तिस धर्मसें अभेदरूप संपूर्णधर्मस्वरूप वस्तुका प्रतिपादन होनेसें, यौगपद्य होता है. ___ अथ कालादि अष्ट येह हैं. काल १, आत्मरूप २, अर्थ ३, संबंध ४, उपकार ५, गुणिदेश ६, संसर्ग ७, और शब्द ८.। तदुक्तम् ॥
कालात्मरूपसंबंधाः संसर्गोपक्रिये तथा ।।
गुणिदेशार्थशब्दाश्चेत्यष्टौ कालादयः स्मृताः ॥१॥ इसका अर्थ ऊपर लिख आये हैं:-तत्र स्थाजीवादिवस्त्वस्त्येवेति-कथंचिजीवादिवस्तु अस्तिरूपही है. यहां जिस कालमें अस्तित्व है, तिसही कालमें
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