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षत्रिंशःस्तम्भः।
७०३ अथ प्रसंगप्राप्त स्वभावविभावपर्याय, कथन करते हैं. तहां अगुरुलघुद्रव्यके जे विकार हैं, वे स्वभावपर्याय हैं; उससे विपरीत, अर्थात् स्वभावसें अन्यथा होनेवाले, विभाव हैं. तहां अगुरुलघुद्रव्य स्थिर है, यथा सिद्धिक्षेत्रं, जो कहा है समवायांगवृत्तिमें. गुरुलघुद्रव्य सो है, जो तिर्यग्गामि, तिरछा चलनेवाला है, यथा वायु आदि. अगुरुलघु सो है, जो स्थिर है; यथा सिद्धिक्षेत्र, तथा घंटाकारव्यवस्थित ज्योतिकविमानादि. गुणके जे विकार हैं, वे पर्याय हैं; और वे बारां प्रकारके हैं. अनंतभागवृद्धि (१), असंख्यातभागवृद्धि (२), संख्यातभागवृद्धि (३), अनंतगुणवृद्धि (४), असंख्यातगुणवृद्धि (५), संख्यातगुणवृद्धि (६), अनंतभागहानि (७), असंख्यातभागहानि (८), संख्यातभागहानि (९), अनंतगुणहानि (१०), असंख्यातगुणहानि (११), संख्यातगुणहानि (१२), इति.। नरनारकादि चतुर्गतिरूप, अथवा चौराशी लक्ष ( ८४०००००) योनिरूप, विभावपर्याय है. इति. ॥
अथ गुण लिखते हैं. अस्तित्व (१), वस्तुत्व (२), द्रव्यत्व (३), प्रमेयत्व (४), अगुरुलघुत्व (५), प्रदेशत्व (६), चेतनत्व (७), अचेतनत्व (c); मूर्तस्व (९), अमूर्त्तत्व (१०). येह द्रव्योंके सामान्य गुण हैं. प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ गुण, पाते हैं. अब इनका अर्थ लिखते हैं. अस्तित्व, सद्रूपपणा, नित्यत्वादिउत्तरसामान्योंका, और विशेषस्वभावोंका आधारभूत. । १ । वस्तुत्व, सामान्यविशेषात्मकपणा. । २ । द्रव्यत्त्व, द्रव्याधिकारोक्त 'सत्' और सत् द्रव्यका लक्षण है. । ३ । प्रमाणकरके, जो मापनेयोग्य है, सो प्रमेय है।४। अगुरुलघुत्व, जो सूक्ष्म, और वचनके अगोचर है;
और प्रतिसमय षट्पदगुणी हानि, और वृद्धि, जो द्रव्यमें होरही है, जो केवल आगमप्रमाणसेंही ग्राह्य है, सो अगुरुलघुगुण है.। यतः॥
सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते ॥
आज्ञासिहं तु तद् ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥१॥ भावार्थ:-सूक्ष्म, जिनोक्त तत्त्व, जो हेतुयोंसें खंडित नही होता है,
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