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- पशिस्तम्भः। ....यादि परमभावस्वभाव न माने तो, द्रव्यमें प्रसिद्धरूप कैसें दिया जाय! क्योंकि, अनंतधर्मात्मक वस्तुको एकधर्मपुरुषकारकरके बुलाना कम करना, सोही परमभावस्वभावका लक्षण है. । ११ ।
जेकर एकांतचैतन्यस्वभाव माने तो, सर्व वस्तु चैतन्यरूप होजावेगी; तब ध्यान, ध्येय, ज्ञान, ज्ञेय, गुरु, शिष्यादिकका अभाव होवेगा. क्योंकि, जब जीवको सर्वथा चेतनखभावही कहें, अचेतनस्वभाव न कहें तो, अचेतनकर्मका जो कर्मद्रव्योपश्लेष तिसकरके जनित चेतनके विकार विना, जीवको शुद्ध सिद्धसदृशपणा होगा; तब तो, ध्यान ध्येय गुरु शिष्य इनकी क्या जरूर है ? ऐसें तो सर्वशास्त्रव्यवहार निष्फल होजायगा. शुद्धको अविद्यानिवृतिपणे, क्या उपकार होवे ? इसवास्ते 'अलपणा यवागूः' इस वचनवत्, अचेतन आत्मा, ऐसा भी कथंचित् कहना योग्य है. । १२ ।
जेकर एकांत अचेतनस्वभाव माने, तब सकलचैतन्यका उच्छेद होवेगा. । १३ । ... जेकर एकांत मूर्त माने, तप आत्माकी मुक्तिकेसाथ व्याप्ति न हो. वेगी.।१४।
जेकर एकांत अमूर्त माने, तब आत्मा संसारी कदापि न होवेगा.।१५।
जेकर एकांत एकप्रदेशस्वभाव माने, तब अखंड परिपूर्ण आत्माको अनेककार्यकारित्वकी हानि होवेगी. जैसे घटादिक अवयवी, देशसें सकंप, और देशसे निष्कंप देखते हैं; सो द्रव्यको अनेकप्रदेशी न माननेसे कैसे सिद्ध होवेगा ? यदि अवयव कंपते हुए भी, अवयकी निष्कंप है, ऐसे कहो तो 'चलती' यह प्रयोग कैसे सिद्ध होगा ? प्रदेशवृत्तिकंपका जैसें परंपरासंबंध है, तैसें देशवृत्तिकंपाभावका भी परंपरा. संबंध है, तिसवास्ते देशसें चलता है, और देशसें नही चलता है, इस अस्खलित व्यवहारमें अनेक प्रदेश मानना; तथा अनेक प्रदेश स्वभाव न मानीये तो, आकाशादि द्रव्यमें परमाणुसंयोग कैसे घट सके ? क्योंकि, एकवृत्ति तो देशसें है, जैसे कुंडल इंद्रको, यहां
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