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तत्त्वनिर्णयप्रासादस्वद्रव्यादिग्राहक-जैसें अर्थ, जो घटादिकद्रव्य सो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव, इन चारोंकी अपेक्षा सत् है, स्वद्रव्य मृत्तिका, स्वक्षेत्र पाटलिपुरादि, स्वकाल विवक्षितहेमंतादि, स्वभाव रक्ततादि, इनोंसें जो घटादिककी सत्ता, सो प्रमाण है, सिद्ध है. इति स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकः ।२।
परद्रव्यादिग्राहक-जैसें अर्थ जो घटादिक, सो, परद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा सत् नहीं है; यथा परद्रव्य तंतुप्रमुख, परक्षेत्र काशीप्रमुख, परकाल अतीत अनागतादि, परभाव झ्यामतादि, इन चारोंकी अपेक्षा, घट, असत् है, इति परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकः । ३। __ परमभावग्राहक-जिस नयानुसार आत्माको ज्ञानस्वरूप कहते हैं; यद्यपि दर्शन, चारित्र, वीर्य, लेश्यादिक आत्माके अनंत गुण है, तो भी, सर्वमें ज्ञानस्वभाव सार उत्कृष्ट है. क्योंकि, अन्य द्रव्यसें आत्माका भेद ज्ञानस्वभाव दिखाता है, तिसवास्ते शीघ्रोपस्थितिकपणे आत्माका ज्ञानही परमभाव है, इसवास्ते 'ज्ञानमय आत्मा' यहां अनेक स्वभावोंके बीचसे ज्ञानाख्यपरमभाव ग्रहण किया. ऐसें दूसरे द्रव्योंके भी परमभाव, असाधारण गुण लेने. इति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकः । ४।
कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक-जैसें सर्वसंसारी प्राणीमात्रको सिद्धसमान शुद्धात्मा गिणीयें कहियें, अर्थात् सहजभाव जो शुद्धात्मस्वरूप उसको अग्रगामी करिये, और भवपर्याय जो संसारके भाव उनको गिणिये नहीं, अर्थात् उनकी विवक्षा न करिये. इति.। यदुक्तं द्रव्यसंग्रहे ॥ मग्गणगुणठाणेहिं चउदसहिं हवंति तह असु द्धणया ॥ विण्णेया संसारी सवे सुद्धा हुसुद्धणया ॥१॥
चतुर्दशमार्गणा. औरगुणस्थानकरके अशुद्ध नय होते हैं, ऐसे जानना, और सर्वसंसारी, शुद्धनयापेक्षा शुद्ध है, ऐसे जानना. इति कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्व्यार्थिकः । ५।
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