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पत्रिंशःस्तम्भः। पकत्वका होना, आत्माके गुणोंका शरीरमेंही उपलभ्यमान होनेसें सिद्ध हुआ, आत्माका शरीरपरिमाणपणा.*
तथा शंकरभाष्यमें और टीकामें जो लिखा है कि, देहपरिमाण परिच्छिन्न आत्माके माने, आत्मा अनित्य सिद्ध होता है,
तथाचानुमानं-“देहपरिमाणपरिछिन्न आत्मा अनित्यः मध्यमपरिमाणवत्त्वात् घटवत् ॥” देहपरिमाणपरिछिन्न आत्मा अनित्य है, मध्यमपरिमाणवाला होनेसें, घटकीतरें.और जो नित्य है, सो, मध्यमपरिमाणवाला भी नहीं; यथा आकाश, वा अणुपरिमाणवाला परमाणु. इसवास्ते आत्मा, देहपरिमाणव्यापक नही, किंतु सर्वव्यापक है. इत्यादि-यह पूर्वोक्त कहना ठीक नही है. क्योंकि, पूर्वोक्त अनुमान तो, नैयायिकोंका है, परंतु वेदांतियोंका नहीं है. वेदांतियोंके मतमें तो, ऐसे अनुमानका उत्थानही नही होता है. क्योंकि, वेदांतियोंने सर्वसें अणुप्रमाणवाले परमाणु, और सर्वसें महाप्रमाणवाला आकाश, यह दोनों मानेही नहीं है, द्वैतापत्ति होनेसें. तो फिर पूर्वोक्त अनुमान, उनके मतमें कैसे संभवे ? अपितु नही संभवे. जब कल्पितवस्तु अनुमानका विषयही नहीं है, तो फिर, ऐसा अनुमान, वेदांती आत्माकी अनित्यता सिद्ध करनेवास्ते कैसें कह सकते हैं ? इसवास्ते व्यासजी, और शंकरस्वामीका जो कथन है, सो स्वमतविरुद्ध, और प्रमाणयुक्तिसें बाधित है. तथा पूर्वोक्त अनुमान भी, व्यभिचारि है. यथा॥ “॥ वल्मीकं कुंभकारकर्तृजन्यं मृद्विकारत्वात् घटवत्॥"
जैसें यह अनुमान व्यभिचारि है, जो जो मृद्विकार है, सो सर्व कुंभकारकर्तृजन्य, न होनेसें. ऐसेंही 'मध्यमपरिमाणवत्त्वात्' यह भी हेतु असिद्ध है. क्योंकि, मध्यमपरिमाणवाले चंद्रसूर्यादि, कथंचित् नित्य है; और 'मध्यमपरिमाणवत्त्वात् ' यह हेतु, प्रतिवादिजैनोंके मतमें सम्मत
* तैत्तिरीय आरण्यकके दशमे प्रपाठकके अडतीसमे अनुवाकमें भी, 'आपादमस्तकव्यापी ' पैरसें लेके मस्तकपर्यंत व्यापी जीव लिखा है.
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