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षट्त्रिंशः स्तम्भः ।
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दि नानाप्रकारके दुःख जीवने भोगे हैं, वे सर्व, ईश्वरकी निर्दयतासें हुए. (१) विना अपराधके दुःख देनेसें अन्यायी, (२) एकको सुखी, एकको दुःखी करनेसें पक्षपाती, (३) पीछे, पुण्यपापके दूर करनेका उपदेश देनेसें अज्ञानी, ( ४ ) इत्यादि अनेक दूषण होनेसें दूसरा पक्ष भी असिद्ध है. ॥ २ ॥
अथ तीसरा पक्ष:- जीव, और कर्म, एकही कालमें उत्पन्न हुए; यह भी पक्ष मिथ्या है. क्योंकि, जो वस्तु साथ उत्पन्न होती है, उनमें कर्त्ता कर्म नही होते हैं. (१) उस कर्मका फल जीवको न होना चाहिये. ( २ ) जीव और कर्मोंका, उपादानकारण नही. ( ३ ) जेकर एक ईश्वरही, जीव और कर्मका उपादानकारण मानीये तो, असिद्ध है. क्योंकि, एक ईश्वर जड चेतनका उपादानकारण नही होसकता है. ( ४ ) ईश्वरको जगत् रचनेसें कुछ लाभ नही. ( ५ ) न रचनेसें कुछ हानि नही. (६) जब जीव, और जड, नही थे तब ईश्वर किसका था ? ( ७ ) जीव कर्म स्वयमेव उत्पन्न नही होसकते हैं. ( ८ ) इसवास्ते तीसरा पक्ष भी मिथ्या है. ॥ ३ ॥
अथ चौथा पक्षः - जीवही सच्चिदानंदरूप अकेला है, पुण्यपाप नही यह भी पक्ष मिथ्या है. क्योंकि, विनापुण्यपापके जगत्की विचित्रता कदापि सिद्ध नही होवेगी. इसवास्ते चौथा पक्ष भी मिथ्या है. ॥ ४ ॥
अथ पांचमा पक्ष:- जीव, और पुण्य पाप, येह हैही नही; यह भी कहना मिथ्या है. क्योंकि, जब जीवही नही है, तब यह ज्ञान किसको हुआ ? कि कुछ हैही नही ! इसवास्ते पांचमा पक्ष भी असिद्ध है. ॥ ५॥
इन पूर्वोक्त पांचों पक्षोंके असिद्ध होनेसें, छट्टा यही पक्ष सिद्ध हुआ कि, जीव और कर्मों का संयोगसंबंध, प्रवाहसें अनादि है. तथा यह आत्मा कर्मोंके संबंध स्थावररूप होरहा है. थावरके पांच भेद हैं. पृथिवी ( १ ), जल ( २ ), अग्नि (३), पवन ( ४ ), और वनस्पति ( ५ ) इन पांचों थावरोंको एकेंद्रिय जीव कहते हैं. त्रसके चार भेद हैं. द्वींद्रिय (१), त्रींद्रिय ( २ ), चतुरिंद्रिय ( ३ ), पंचेंद्रिय ( ४ ), तथा नारक,
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