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तत्त्वनिर्णयप्रासादतिर्यंच, मनुष्य, देवता; उनमें नरकवासीयोंके (१४) भेद, तियंचगतिके (४८) भेद, मनुष्यगतिके (३०३) भेद, और देवगतिके (१९८) भेद हैं. येह सर्व मिलाके जीवोंके ( ५६३ ) भेद हैं. ___ तथा यह आत्मा कथंचित् रूपी, और कथंचित् अरूपी है. जबतक संसारीआत्मा कर्मकर संयुक्त है, तबतक कथंचित् रूपी है; और कर्मरहित शुद्ध आत्माकी विवक्षा करीये, तब कथंचित् अरूपी है. जेकर आत्माको एकांत रूपी मानीये, तब तो, आत्मा जडरूप सिद्ध होवेगा, और काटनेसे कट जावेगा; और जेकर आत्माको एकांत अरूपी मानीये, तब तो, आत्मा, क्रियारहित सिद्ध होवेगा; तब तो बंध मोक्ष दोनोंका अभाव होवेगा; जब बंध मोक्षका अभाव होवेगा, तब शास्त्र, और शास्त्रके वक्ता झूठे ठहरेंगे; और दीक्षा दानादि सर्व निष्फल होवेंगे. इसवास्ते आत्मा कथंचित् रूपी, कथंचित् अरूपी है.।
तथा प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारसूत्रमें आत्माका स्वरूप ऐसा लिखा है।
“ ॥ चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता भोक्ताभोक्ता स्वदेहपरिमाणः । प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौगलिकादृष्टवांश्चायमिति ॥” ।
भावार्थ:-साकार निराकार उपयोगस्वरूप है जिसका, सो चैतन्यस्वरूप (१). समयसमयप्रति, पर अपर पर्यायोंमें गमन करना, अर्थात् प्राप्त होना, सो परिणाम, सो नित्य है इसके, सो परिणामी (२). इन दोनों विशेषणोंकरके आत्माको जडस्वरूप कूटस्थ नित्य माननेवाले नैयायिकादिकोंका खंडन किया, सो देखना होवे तो, प्रमाणनयत्त्वालोकालंकारकी लघुवृत्ति स्याद्वादरत्नाकरावतारिकासें देख लेना. कर्ता, अदृष्टादिकका (३). साक्षात् उपचाररहित, सुखादिकका भोक्ता, सो साक्षागोक्ता (४). इन दोनों विशेषणोंकरके कापिलमतका निराकरण किया, सो भी, पूर्वोक्त ग्रंथसें जानलेना. खदेहपरिमाण, अपने ग्रहण करे शरीरमात्रमें व्यापक (५). इस विशेषणकरके नैयायिकादि परिकल्पित आत्माका सर्वव्यापिपणा निषेध किया, जो पूर्वसंक्षेपसें लिख आये हैं. शरीरशरीरप्रति भिन्न
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