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तत्त्वनिर्णयप्रासादअन्य स्मरण करनेको समर्थ होता है, अतिप्रसंग होनेसें. तिसकरके आरभ्यत्वके हुए, इस आत्माका, घटवत्, अवयवक्रियासे विभाग होनेसें संयोगविनाशसें विनाश होवेगा. और शरीरपरिमाणत्व आत्माके हुए, आत्माको मूर्त्तत्वकी प्राप्ति होनेसें आत्माका शरीरमें प्रवेश नही होवेगा, मूर्तमें मूर्त्तके प्रवेशका विरोध होनेसें. तब तो, निरात्मकही, संपूर्ण शरीर, होवेगा. अथवा आत्माको शरीरपरिमाणत्वके हुए, बालशरीरपरिमाणवाले आत्माको, युवशरीरपरिमाण अंगीकार कैसे होवे? बालपरिमाणको त्यागके, वा न त्यागके ? जेकर त्यागके, तब तो, शरीरवत् , आत्माको अनित्यत्वका प्रसंग होनेसें, परलोकादिकके अभावका प्रसंग होवेगा. जेकर विनाही त्यागनेसें, तब तो, पूर्वपरिमाणके न त्यागनेसें, शरीरवत्, आत्माको उत्तरपरिमाणकी उपपत्ति नही होवेगी. तथा हे जैन! तू आत्माको शरीरपरिमाण कहता है, तब तो, शरीरके खंडन करनेसें, तिस आत्माका खंडन, क्यों नही होता है ? सो कहो.
उत्तरपक्षः-हे वादिन् ! जो तूने कहा कि, आत्माके सर्वव्यापीके अभावसें इत्यादि-सो असत्य है. क्योंकि, जो जिसकरके संयुक्त है, सोही तिसप्रति उपसर्पण करता है, ऐसा नियम नहीं है. चमकपाषाणकरके, लोहा संयुक्त नही भी है, तो भी तिसके आकर्षण करनेकी उपलब्धिसें.
पूर्वपक्षः-जेकर असंयुक्तका भी आकर्षण होवे, तब तो, तिसके शरीरारंभप्रति, एकमुखी हुए, त्रिभुवन उदरविवरवर्ति परमाणुओंका उपसर्पण प्रसंग होनेसें, न जाने कितने परिमाणवाला तिसका शरीर होवेगा ?
उत्तरपक्षः-संयुक्तके भी, आकर्षणमें यही दोष, क्यों नही होवेगा? आत्माको व्यापक होनेकरके, सकलपरमाणुओंका तिस आत्माके साथ संयोग होनेसें.
पूर्वपक्षः-संयोगके अविशेषसें, अदृष्टके वशसें विवक्षितशरीरके उत्पादन करनेमें, योग्य नियतही परमाणु, उपसर्पण करते हैं. ... उत्तरपक्षः-तब तो हमारे पक्षमें भी तुल्य है.। और जो कहा कि, सावयवशरीरके, प्रतिअवयवमें, प्रवेश करता आत्मा इत्यादि. सो भी,
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