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तत्वनिर्णयप्रासादसा उल्लेख अर्थात् स्वरूप है,जेकर अन्यपदार्थको अन्यपदार्थके रूपकी प्राप्ति होवे तो, पदार्थके स्वरूपकी हानिकी प्रसक्ति होवे. एवकारके पठन करनेसें ऐसे स्वरूपवाला भंग है, ऐसा एवकारसें अवधारण होता है. और अवधारण तो, अवश्य करना चाहिये. नही तो, किसीजगे कथन करा हुआ भी नाकथनसरीखा होवेगा. तथा जेकर 'अस्त्येव कुंभः' इतनाही कथन करीये तबतो, कुंभको स्तंभादिकपणे अस्तित्वकी प्राप्ति होनेसें प्रतिनियत स्वरूपकी अनुपपत्ति होवेगी, इसवास्ते उसके प्रतिनियत स्वरूपकी प्रतिपत्तिके वास्ते ' स्यात् ' ऐसा अव्यय, जोडा जाता है. कथंचित् रूपकरके खद्रव्यादिचतुष्ट यकी अपेक्षा अस्ति, और परद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा नास्ति है; ऐसे प्रयोगकी प्रतिपत्तिकेवास्ते तथा तिस ‘स्यात्' अव्ययको व्यवच्छेदफल ‘एवकार' कीतरें जहांकहीं शास्त्र में स्यात्' पद प्रकट नही भी कहा है, वहां भी, 'स्यात् ' पद अवश्यमेव जानना. तदुक्तम् ॥ - सोप्यप्रयुक्तो वा तजज्ञैः सर्वत्रार्थात् प्रतीयते । ___ यथैवकारो योगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः ॥१॥
अर्थः-जिसजगे ‘स्यात् ' पद, नहीं कहा है, तहां भी, तिस स्यात् अव्ययके जानने वालोंनेअर्थसें जान लेना; अयोगव्ययच्छेदादि प्रयोजनवाले एवकारवत्. तिसवास्ये एवकार, और स्यात्कार ये दोनों सातोंही भंगमें ग्रहण करना. विधिप्रधान होनेसें विधिरूपही प्रथम भंग है. ॥१॥ __ अथ अर्थसें दूसरा भंग दिखाते हैं:-स्यान्नास्त्येवेति निषेधप्रधानकल्पनयायंभंगः॥कथंचित् यह नहीं है, ऐसे निषेधप्रधानकल्पनाकरके यह दूसरा भंग है. जो नियमकरके साध्यके सद्भावसें अस्तित्व है, सोही साध्यके.अभावमें नास्तित्व कथन करीये हैं; जैसें, घट, स्वद्रव्यचतुष्टयकरके अस्तिरूप सिद्ध है, तैसें मुद्गरादिके संयोगसे नष्ट हुआ थका, वोही घट, नास्तित्वरूपकरके सिद्ध होता है; अस्तित्वको नास्तित्वके अविनाभावि होनेसें, तथाच क्षणविनश्वरभावोंकी उत्पत्तिही, विनाशमें कारण मानते हैं.
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