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द्वात्रिंशस्तम्भः। भाषाटीकाः-और उन रजिके पुत्रोंको भी बृहस्पतिजीने उनके पास जाकर मोहा, और आज्ञा दी कि, तुम सब जैनधर्मके आश्रय हो जाओ. ऐसा कह कर बृहस्पतिजी भी, वेदसें बाह्य मतको चलाते भये, और वेदसेंरहित वेदत्रयी भी बनाते भये.
अब विचारना चाहिये कि, वेदव्यासजीसें प्रथम जैनमतके होनेमें कुछ भी शंका है? तथा इस पाठसें तो, जैनमत, वेदसंहितासें तो क्या, परंतु वेद श्रुतियोंसें भी, पूर्वका सिद्ध हो गया. क्योंकि, बृहस्पतिजीने रजिके पुत्रोंको कहा कि, तुम जैनधर्मके आश्रय हो जाओ. और वेदकी श्रुतियोंमें बृहस्पतिजीकी स्तुति है, तो सिद्ध हुआ कि, वेदकी श्रुतियोंसे बृहस्पतिजी प्रथम हुए. और, जैनधर्म बृहस्पतिजीसें भी, प्रथम हुआ.
पूर्वपक्षः-युक्ति प्रमाणोंसें, और स्वमतपरमतके पुस्तकोंसें तो, तुमने जैनमतको प्राचीन सिद्ध करा. परंतु वर्तमानमें जो वेदसंहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदादि विद्यमान है, तिनमें भी, कोइ ऐसा लेख है, जिससे हम जैनमतको प्राचीन माने ?
उत्तरपक्षः--प्रियवर! लेख तो इनमें भी जैनमतबाबतके बहुत मालुम होते हैं, परंतु भाष्यकारोंने कुछ अन्यके अन्यही अर्थ लिख दीए हैं. जैसे दयानंदसरस्वतिस्वामीने वेदोंके स्वकपोलकल्पित अर्थ, अपने वेदभाष्यमें लिखे हैं. तिनमेसें कितनेक पाठ संहिता आरण्यकके लिख दिखाते हैं. - यजुर्वेदसंहिता अध्याय ९ श्रुति ॥ २५॥ “॥ वाजस्य नु प्रसव आबभूवेमा च विश्वा भुवनानि सर्वतः स नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिं वर्द्धमानो अस्मे स्वाहा॥" - नुइत्यादिमहीधरकृतभाष्यकी भाषाः-'नु' ऐसा विस्मयार्थक अव्यय है, 'वाजस्य' अन्नका ‘प्रसवः' उत्पादक प्रजापति ईश्वर ‘इमा' इमानि विश्वा' विश्वानि भुवनानि-सर्वभूतप्राणी सर्वतः सर्वओरसें रहे
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