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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
हुए मुकुटको जिनेंद्रके मस्तक ऊपर धारण करिये, और श्रीऋषभदेवके कंठमें पुष्पमाला धारण करिये. इत्यादि ॥
तथा श्रीपाल चरित्रमें ऐसें लिखा है. ॥ तत्र नंदीश्वराष्टम्यां सिद्धचक्रस्य पूजनम् ॥ चक्रे सा विधिना दिव्यैर्जलैः कर्पूर चंदनैः ॥ १ ॥ अक्षतैश्चंपकाद्यैश्च पक्वान्नैर्वरदीपकैः ॥
धूपैः सुगंधिभिर्भक्त्या नालिकेरादिसत्फलैः ॥ २ ॥ तद्विलेपनगंधांबुपुष्पाणि सा ददौ मुदा ॥ श्रीपालायांगरक्षेभ्यः पाणिभ्यां रुग्वििहानये ॥ ३॥
भावार्थ:- तब मदनसुंदरी, अष्टान्हिकाविषे सिद्धचक्रका विधिसें, दिव्य जल, कर्पूर, चंदन, अक्षत, चंपकादि पुष्प, पक्वान्न, दीपक, सुगंधिधूप, और नालिकेरादि सुंदर फल, इत्यादि विविध द्रव्योंकरके पूजन करती भई; और तिस पूजनके विलेपन गंधोदक पुष्पोंको ( अर्थात् नैर्माल्यको ) श्रीपाल केतांइ, तथा अंगरक्षकोंकेतांइ रोगहानिके वास्ते, अर्थात् रोगके दूर करनेवास्ते अपने हाथोंसें देती भई ॥
तथा भय्या भगवतीदासकृत ब्रह्मविलासमें ऐसा कवित्त कहा है ॥ जगतकै जीव तिन्है, जीतिकै गुमानी भयो । ऐसो कामदेव एक, जोधा यो कहायो है ॥ ताकै सर जानी यत, फूलनीके वृंद बहु । केतकी कमल कुंद, केवरा सुहायो है ॥ मालती महासुगंध, वेलकी अनेक जाती । चंपक गुलाब जिन, चरनन चढायो है ॥ तेरीही सरन जिन, जोर न बसाय याको । सुमनसुं पूजो तोही, मोहि ऐसो भायो है ॥ १ ॥ तथा योगींद्रदेवकृत श्रावकाचारमें ऐसें लिखा है. ॥
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