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तत्त्वनिर्णयप्रासादशंकरस्वामीने माहिष्मति नगरीमें जाके मंडनमिश्रको पराजय करा, तब उसकी भार्याने शंकरखामीको कामशास्त्रकी बातें पूछी, शंकरस्वामीको उनका उत्तर नही आया. तब शंकरस्वामी वहांसें चले गये, किसी देशमें अमरक नामा राजेका मुरदा देखा, तब एक पर्वतकी गुफामें जाके अपने शिष्योंको कहा कि, जबतक मैं पीछा इस शरीरमें न आऊं तबतक तुमने इसकी रक्षा करनी; ऐसा कहकर योग महात्मसें शंकरके शरीरको छोडके शंकरका जीव, उस राजाके शरीरमें प्रवेश कर गया; तब राजाका शरीर धीरे धीरे अंग हिलाके जीता होगया. तब सर्व राणीयां मंत्री आदि आनंदित हुए, बड़े उत्सवसे राजमंदिरमें लेगए; मंत्रियोंने परस्पर विचार किया कि, यह किसी योगीका जीव राजाके शरीरमें प्रवेश कर गया है, नही तो, राज्य करनेकी ऐसी कुशलता कहांसे होवे? यह गुण समुद्र, फिर तिस शरीरमें न चला जावे, इसवास्ते, जो मृतक शरीर होवें, वे सर्व, जला दो, ऐसी अपने नोकरोंको आज्ञा दे दी.* __ इधर परम निपुण शंकरखामी, अपने मंत्रियोंको राज्य चलाना सौंपके, आप, राजाकी राणीयोंसें भोग करने लगे. कैसें भोग ? जो अन्य राजाओंको मिलने दुर्लभ हैं, बहुत सुंदर महेलोंमें राणीयोंके साथ पासाओंकरी द्यूतक्रीडा करते हुए, अधरदशन, बाहुउद्वहन, कमलसें ताडना, रतिविपर्यय ग्लहपण करते हुए, अधरसे उत्पन्न हुआ सुधाअमृतके श्लेषसें मनोहर मुखके पवनके संबंधसें सुगंधी कांता-स्त्रियोंके हाथसें प्राप्त हुआ इसवास्तेही अतिप्रिय मदका करनेहारा, ऐसा मदिरा
क्योंकि, न यह किसीको मारता है, और न किसीसें मरता है. ऐसे कहा हुआ भट्टाचार्य, परम गुरुको कहता हुआ; जाग्रतकालानागत नूतन बौद्धतर, किसवास्ते यहां आकरके, तूं, मुझको तपाता है ? तब गुरुने कहा, मैं, बौद्ध नही हूं; किंतु, शंकराचार्य, शुद्धाद्वैतमार्गदाता, प्रसंगार्थे यहां आया हूं. यह वचन सुनके अदग्धशेषशरीर भट्टाचार्य ने कहा, मेरी बहिनका पति, मंडनमिश्र, सर्वज्ञसदृश, सकलविद्यामें पितामहसमान है, उसके साथ, तूं , वाद करनेकी खाजकी निवृत्तिपर्यंत, प्रसंग कर. इत्यादि ॥
* आनंदगिरीकृत शंकरदिग्विजयमें राणीने शरीर जला देनेकी आज्ञा नौकरोंको दी इत्यादि लिखा है, तद्विषयिक वर्णन हमारे बनाए “जनतत्त्वादर्श' से जान लेना.
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