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त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः ।
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धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधवलीयजयत्तओपुरिसो ॥ जायइ फलेहिं संपत्तपरमणिवाणसोक्खफलो ॥ ६ ॥ घंटाहिं घंटसद्दाऊलेसु पवरच्छराणमज्जम्मि || संकीss सुरसंघायसहिओ वरविमाणेसु ॥ ७ ॥ छत्तेहि एस छत्तं भुंजइ पुहवीं च सत्तुपरिहीणो चामरदाणेण तहा विजिज्जइ चमरणिवदहिं ॥ ८ ॥ अहिसेयफलेण णरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसणस्सुवरिं ॥ खीरोयज लेणसुरिंद्र पमुहदेवेहि भत्ती ॥ ९ ॥ विजयपडाणहिं णरो संगामहे विजइओ होइ ॥ छक्खंडेविजयणाहो णिप्पविवखो जसस्सी य ॥ १० ॥ किं जंपिएण बहुणा तीसुवि लोयेसु किंपि जं ॥ सोक्खं पूजाफलेण सवं पाविज्जइ णत्थि संदेहो ॥ ११॥ भावार्थ:- जो नर, जिनेंद्रदेवके आगे जलधारा निक्षेप करे है, तिसका निश्चयकरी तिस जलधाराके प्रभावकरके पापमलका शोधन होवे हैं; और जिनेंद्रको चंदनलेपन करनेसें नर, सौभाग्यसंयुक्त होता है. । जो प्राणी, भक्तिसें जिनेंद्र के अक्षतके पुंजकरी अक्षतपूजा करता है, सो अक्षय निधिवाला होता है, रत्नोंका स्वामी होता है. अर्थात् षट्खंडवामी - चक्रवर्त्ती होता है, क्षोभकरकेरहित होता है, अक्षीणलब्धियुक्त होता है, और यावत् अक्षय सुख मोक्षको प्राप्त होता है । प्रभूकी पुष्पोंसें पूजा करनेसें कमलवदनी तरुणीजन के नेत्ररूप पुष्पोंकी वरमालाकरके आवृत देहका धारी होता है, और कामदेवसमान रूपवान् होता है. । प्रभुके आगे नैवेद्यप्रदान करनेसें पुरुष शक्तिमान् होता है, कांतिमान् होता है, तेजस्वी होता है. तथा लावण्यताके समुद्रकी बेला तरंगसमान शरीरको प्राप्त करता है. । दीपकपूजा करनेसें जैसें दीपक अंधकारको दूर करके वस्तुको प्रकाश करता है, तैसेंही तिस प्राणिको अज्ञानांधकार दूर होकर
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