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तत्त्वनिर्णयप्रासादउक्तंच ॥ बालस्त्रीमूढमुर्खाणां नृणां चारिकांक्षिणाम् ॥
अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञः सिद्धांतः प्राकृतः कृतः ॥ १॥ - एक अन्यबात भी है कि, प्राकृतमें भी प्रवचनका निबंध दृष्टेष्ट अविरोधी है, तो फिर, कैसें अवांतर परिकल्पनाकी शंका उत्पन्न होवे ? क्योंकि, सर्वज्ञके विना अन्य कोइ भी दृष्टेष्ट अविरोधवचन, नहीं कह सकता है. यह निःशंकित नामा प्रथम आचार है.। १ । निःकांक्षित, वांछा करनेका नाम कांक्षा है, सो कांक्षा जिसथकी नीकल गइ है, सो कहिये निःकांक्षित, अर्थात् देश, सर्व कांक्षारहित होवे; तहां देशकांक्षा, एक दिगंबरादि दर्शनकी वांछा करे; और सर्वकांक्षा, सर्वही दर्शन अच्छे हैं, ऐसें चिंतन करना; येह दोनों प्रकारकी कांक्षा करनी ठीक नहीं है. क्योंकि, शेष दर्शनोंमें षट् जीवनिकायपीडासें, और असत् प्र. रूपणाके होनेसें; इति निःकांक्षितनामा दूसरा आचार. ! २। विचिकित्सा, मतिभ्रम फलप्रति संशय करना, जिनशासनतो अच्छा है, किंतु प्रवृत्त हुए मुझको इस कर्त्तव्यसें फल होवेगा, वा नहीं ? क्योंकि, कृषीकर्मादिक्रियामें दोनोंही देखनेमें आते हैं, इत्यादि विकल्परहित होवे. क्योंकि, नहीं अविकल उपायके हुए उपेयकी प्राप्ति नही होती है, अ. पितु होवेही है; ऐसा निश्चय जो होना, सो निर्विचिकित्स नामा तीसरा आचार जानना.। ३ । अमृढदृष्टि, बाल तपस्वीके तप, विद्या, अतिशयको देखनेसें मूढस्वभावसें चलचित्त न होवे; सुलसां श्राविकावत्, सो अमूढदृष्टिनामा चौथा आचार. । ४ । समानधार्मिक जनोंके गुणोंकी प्रशंसा करके उनकी वृद्धि करनी, सो उपबृंहणानामा पांचमा आचार. । ५ । धर्मसें सीदाते (डोलतेहए ) को फिर धर्ममेंही स्थापन करना, सो स्थिरीकरणनामा छट्टा आचार. । ६ । समानधार्मिक जनोंको अन्नपाणी वस्त्रादिकोंसें उपकार करना, सो वात्सल्यतानामा सातमा आचार. । ७। प्रभावना, धर्मकथा, धर्ममहोत्सवादिकोंकरके तीर्थका प्रकाश करना, उन्नति करनी, सो प्रभावना नामा आठमा आचार.। ८। इन आठों आचारोंसहित सम्यग्दर्शनसंयुक्त जो हो सो दर्शनार्यः ॥ ८॥
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