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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
६१५ केवलीके चारित्रको मलिन करे हैं, जिसको प्रदेशोंका चंचलभाव है, तिसकोंही यह योगत्रयव्यापार है; और कर्मग्रंथोंमें बेतालीस (१२) कर्मप्रकृतियां उदयमें केवलीको कही है, वे, अपना अपना नानाप्रकारका रस दिखाती हैं । अवयवोंका जो प्रकर्षसें चलाना है, सो प्रवचनसारमें क्रियाविशेष कहनेकरके केवलीकों कहा है; समयसारमें भी अंगसंचालन कहा है, भक्तामरस्तोत्रमें भगवंतको चरणोंसें चलना कहा है, एकीभावस्तवनमें जिनवरचरणोंका न्यास कहा है, भावपाहुडकी वृत्तिमें तीर्थंकरके चरणोंका न्यास कहा है, वीरनंदिकृत श्रीचंद्रप्रभचरित्रमें और हरिश्चंद्रकायस्थविरचित धर्मशर्माभ्युदयमें भी, भगवान्का विचरना लिखा है.
अब पूर्वोक्त शास्त्रोंके पाठ, अर्थसहित, अनुक्रमसें लिखते हैं। तत्रादौ तत्त्वार्थसूत्रपाठो यथा ॥
“॥ सूक्ष्मसंपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दशएकादशजिने ॥"
भाषार्थः-सूक्ष्मसंपराय, और छद्मस्थ वीतरागमें अर्थात् दशमे इग्यारमे बारमे (१०। ११ । १२ ।) गुणस्थानमें चौदह (१४) परीषह हैं; और जिन-केवलीमें इग्यारह (११) परीषह हैं. तव तो, क्षुधापरीषहके हुए, केवलीको कवलाहार सिद्ध हुआ. परंतु कितनेक दिगंवरटीकाकारोंने, टीकामें नकार ग्रहण करा है, सो महाउत्सूत्र है. “एकादशजिने न संतीतिशेषः" ऐसी मिथ्याकल्पना सिद्ध करी है. क्योंकि, दिगंवरटीकाकार सूत्रशैलीके अनभिज्ञ मालुम होते हैं. जब सूत्र में नकार कहाही नहीं है, तो टीकाकारने नकार कहांसें काढ मारा ? जेकर नकार माना जावे, तब तो, संलग्न सर्वसूत्रके साथ 'न संति' क्रियाका संबंध मानना चाहिये. तब तो, ऐसा अर्थ होवेगा, सूक्ष्मसंपराय, और छद्मस्थ वीतरागके चतुर्दश परीषह नहीं है; परंतु मतांधपुरुष मिथ्यात्वके उदयसें क्या क्या झूठी कल्पना नहीं करसकता है ? अपितु सर्व करसकता है. जब केवलीमें वेदनीय कर्मके उदयसे इग्यारह परीषह हैं, तो फिर, क्षुधाके लगनेसें
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