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चतुस्त्रिंशःस्तम्भः।
६२९ और इस कालमें जो बुद्धिमानोंने पृथिवी सूर्य आदिके चलनेका स्वरूप प्रकट किया है, सो अनुमान बांधके प्रकट करा है; परंतु सर्वस्वरूप किसीने आंखोंसें नहीं देखा है. क्योंकि, दक्षिण उत्तर ध्रुव बतलाते हैं, और उनका स्वरूप लिखते हैं, और यह भी कहते हैं कि, दक्षिण उत्तर ध्रुवोंतक कोइ भी पुरुष नहीं जा सकता है. और ध्रुवकी तरफ जानेका प्रयत्न करनेवाली कई मंडलिओंका पता भी बरफके पहाडोंमें लगा नहीं है. जब ऐसें है, तो फिर, उनके लिखे कल्पित-आनुमानिक स्वरूपकी सत्यता कैसें मानी जावे? क्योंकि, पृथिवीके कितनेही हिस्से ऐसे हैं कि, वे अभितक जाननेमें नही आये हैं. थोडे अरसेकी बात है, एक अखवार (न्युसपेपर ) में हमने बांचा है कि, अमेरिकन शोधकोंने यह विचार किया कि, यह धूमस (धूवां) कहांसे आती है ? तलाश करते हुए उनको एसामालुम हुआ कि, दूर फांसलेपर एक शहर तीसहजार (३००००) घर, वा मनुष्योंकी वस्तीवाला दीख पडा; उस विषयमें वे लिखते हैं कि, हम नही जानते है कि, इस शहरका क्या नाम, और किस बादशाहकी हकुमत इसपर है ? ऐसेंही पृथिवीके अनेक विभाग, विना जाने पड़े हैं. तो फिर, हम कैसें सर्व कल्पित-आनुमानिक वातोंको सत्यकरके मान लेवें? तथा मि० वीरचंद राघवजी गांधी, बी. ए. के पास एक अमेरिकन विद्वानका बनाया हुआ 'अर्थनॉट एग्लोब' (12.AIRTTI N()!' A CHLOBE) नामका पुस्तक हमने देखा, जिसमें ऐसा लिखा सुणा है, कि पृथिवी गोल नहीं, किंतु चपटी (सपाट) है, और पृथिवी फिरती नहीं है, किंतु सूर्य फिरता है, ऐसे सिद्ध किया है. तथा आकाशमें ऐसें तारे हैं, उनको देख हम ऐसा अनुमान करसकते हैं कि,पृथिवी स्थिर है, और सूर्य चलता है, और जो कोइ हमारे पास आके यह बात देखना चाहे तो, उसको हम दिसला सकते भी हैं. तथा वेदोंमें भी सूर्य चलता है, ऐसें लिखा है. तथाहि प्रथम ऋग्वेदे ॥ तरणिर्विश्वदर्शतोज्योति॒ष्कृदसिसूर्य ॥ विश्वमाभासिरोचनं ॥४॥
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