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तत्त्वनिर्णयप्रासादपहिले रचे गये हैं. और चतुर्दशपूर्व में शब्दप्राभृत १, नाट्यप्राभृत २, वाद्यप्राभूत ३,संगीतप्राभृत ४, स्वरप्राभृत ५, योनिप्राभृत ६, इत्यादि सर्वजगत्की विद्याके प्राभृत थे. तिनमेसें शब्दप्राभृतमें सर्व शब्दोंके रूपोंकी सिद्धि थी, नाट्यप्राभृतमें सर्व नाटकोंके विधिका कथन था, और प्रमाणनयप्राभृतमें सप्तशतार नयचक्रकी सवालक्ष कारिका थी, तिसकी एक कारिका ऊपरसें श्रीमल्लवादि आचार्यने द्वादशारनयचक्रतुंब नामक तर्कशास्त्र रचा, सो वृत्तिसहित अष्टादश सहस्र (१८०००,) श्लोकसंख्या है. तिसकी प्रथम कारिका यह है.॥
विधिनियमभंगरत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकमबोधं ।
जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥१॥ तथा सम्मतितर्क मूल १६८, कारिका वृत्तिसहित २५००० श्लोक प्रमाण हैं. यह भी, पूर्वके प्रमाणनयप्राभृतसे उद्धार करके विक्रमादित्य राजाके समयमें वीरात् (वीर-महावीरका संवत्) ४७० वर्षके लगभग श्री सिद्धसेनदिवाकरने रचा है.। तथा शब्दांभोनिधिगंधहस्तिमहाभाष्य १, अनेकांतजय पताका २, धर्मसंग्रहणी ३, शास्त्रवार्त्तासमुच्चय ४, न्यायावतार ५, न्यायप्रवेश ६, सर्वज्ञसिद्धि ७, प्रमाणसमुच्चय ८, तत्वार्थ ९, षट्दर्शनसमुच्चय १०, इत्यादि अनेक प्रमाणग्रंथ पूर्वधारीयोंके समयमें रचे गए हैं. । तथा प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकारसूत्र तिसकी ८४००० श्लोकप्रमाण स्याद्वादरत्नाकरनामावृत्ति १, लघुवृत्ति ५००० श्लोकप्रमाण रत्नाकरावतारिकानामा २, प्रमेयरत्नकोश ३, लक्ष्मलक्षण ४, खंडनतर्क ५, नयप्रदीप ६, स्याद्वादकल्पलता७, नयरहस्योपदेश ८, खंडखाद्य ९, स्याद्वादमंजरी १०, प्रमाणमीमांसा ११, प्रमाणसुंदर १२, इत्यादि सैंकडो प्रमाणग्रंथ पूर्वोक्त ग्रंथानुयायी रचे गए हैं. । और व्याकरणके ग्रंथ, जैनेंद्र इंद्रादि व्याकरणानुसारे बुद्धिसागर व्याकरण, और तिसका न्यास श्रीबुद्धिसागरसूरिने रचा है. और विद्यानंदसूरिने विद्यानंदव्याकरण रचा है, श्रीमलयगिरिजीने शब्दानुशासनव्याकरण रचा है, और श्रीसिद्धहेमव्याकरण श्रीहेमचंद्रसूरिजीने रचा है. तिसकी बाबत किसी कविने तिस व्याकरणको देखके यह श्लोक कहा है।
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