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तत्त्वनिर्णयप्रासादसिद्धसाध्यता है. क्योंकि, असंख्यात वर्षायुवाली दुषमादि कालमें उत्पन्न हुई तिर्यंचस्त्री, देवस्त्री, अभव्य स्त्री, इत्यादि बहुत स्त्रियोंको हम भी मोक्ष नहीं कहते हैं.। १ । और दूसरे पक्षमें पक्षकी न्यूनता है. विवादास्पदीभूता, ऐसे विशेषण विना, नियतस्त्री के लाभके अभाव होनेसें. । २। दिगंबरः-विवादास्पदीभूता स्त्रीही, हमारा पक्ष है. श्वेतांबरः-हेतुकृत पुरुषापकर्ष, पुरुषोंसें हीनपणा, स्त्रियों में किसतरें है ?
(१) सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयके अभावसे ? (२) विशिष्टसामर्थ्यके न होनेसें ? (३) पुरुषोंकरके अनभिवंद्य होनेसें ? (४) स्मारणादि न करनेसें ? महर्द्धिक न होनसें ? (६) मायादिप्रकर्ष होनेसें ? प्रथम पक्षमें किसवास्ते स्त्रियोंको रत्नत्रयका अभाव है ? दिगंवरः-वस्त्ररूपपरिग्रहके होनेसें, चारित्रका अभाव है, इसवास्ते.
श्वेतांबर:-यह कहना ठीक नहीं है. परिग्रहरूपता, वस्त्रको, शरीरके संबंधमात्रसें है ? वस्त्रके भोग करनेसें ? मूर्छा हेतु होनेसें ? वा जीवसंसक्तिहेतुत्वसें ? प्रथम पक्षमें तो, भूमिआदिका सदा स्पर्श शरीरकेसाथ होनेसें, परिग्रहरहित, कोई भी सिद्ध नही होवेगा; तब तो तीर्थंकरादिकोंको भी मोक्ष मिलना नहीं चाहिये. एतावता लाभ प्राप्त करते हुए तुमने तो, मूलकाही नाश करा! दूसरे पक्षमें वस्त्रका परिभोग, तिनको, अशक्य त्याग करके है, वा गुरुउपदेशसें है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नही. क्योंकि, प्राणोंसें अधिक और कुछ भी प्रिय नही है, तिनको भी धर्मआदिकेवास्ते स्त्रीयां त्यागती दीखती हैं. तो तिनको वस्त्र त्यागने क्या बड़ी बात है ? दूसरा पक्ष भी ठीक नही. क्योंकि, विश्वदर्शी परमगुरु भगवंतने, मोक्षार्थी स्त्रियोंको, जो संयमका उपकारि है, सोही वस्त्रोपकरण, “लो कप्पदि निग्गंधीए अचेलाए होत्तए” निग्रंथी (साध्वी) को नही कल्पे हैं, वस्त्ररहित होना. इत्यादि कथनसें, उपदिशा है, अर्थात् ऐसा उपदेश दिया है। प्रतिलेखन ( मोरपीछी) कमंडलु इत्यादिवत्. इसवास्ते कैसें तिसके परिभोगसें परिग्रहरूपता होवे ? अन्यथा प्रतिलेखन आदि धर्मोपकरणकों भी, परिग्रह होनेका प्रसंग होवेगा।
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