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तत्त्वनिर्णयप्रासादभाषार्थ:-जो वस्त्र प्रच्छादकादि शीतनिवारणवास्ते और भिक्षा अन्नजलादि लेनेवास्ते पात्र, और कंवल वर्षाकल्प पादपुंछन रजोहरणादि, ये सर्व उपकरण संयम और लजाकेवास्ते मुनि धारण करते हैं, और पहिरते हैं. अर्थात् संयमकेवास्ते पात्रादि धारण करते हैं, और लज्जाके वास्ते चोलपट्टकादि वस्त्र पहिरते हैं. इसकास्ते इसको षटकायके जीवोंके रक्षक ज्ञातपुत्र अर्थात् श्रीमहावीर तीर्थंकरने परिग्रह नहीं कहा है, परंतु मूर्छाको परिग्रह कहा है, अर्थात् जिस वस्तु शरीरादि ऊपर मूर्छा ममत्व करना है, सोही परिग्रह कहा है, नतु धर्मसाधनके उपकरणोंको; महाऋषि गौतम सुधर्मादिकोका ऐसा कथन है.
तथा दिगंबराचार्य शुभचंद्रकृत ज्ञानार्णव पोडश (१६) प्रकरणमें भी लिखा है। यतः॥ निःसंगोपि मुनिन स्यात् संमूर्च्छन् संगवर्जितः ॥
यतो मच्छेव तत्त्वज्ञैः संगसतिः प्रकीर्तिता ॥ ५॥ भाषार्थः-जो मुनि निःसंग होय, बाह्य परिग्रहरहित होय, और ममत्व करता होय तो, नि:परिग्रही न होय, जातै तत्वज्ञानिनने मूर्छा ममत्व परिणामहीकू परिग्रहकी उत्पत्ति कही है ॥ ५॥ इसवास्ते धर्मोपकरण धर्मसाधनकेतांइ रखने, तिनऊपर मूर्छा नहीं करनी, इसवास्ते परिग्रह नहीं है. तिस धर्मोपकरणधारी मुनिको केवलज्ञान, और मुक्ति दोनोंही सिद्ध है.
दिगंबर:-जब धर्मोपकरण रखेगा, तब तो मूर्छा अवश्यमेवही होवेगी तो फिर, तिसको परिग्रहका त्यागी कैसें माना जावे ?
श्वेतांबरः-अहो देवानांप्रिय ! तूं तो अपने मतके शास्त्रोंका भी जाननेवाला नहीं है, क्योंकि, ज्ञानार्णवके अष्टादश (१८) प्रकरणमें यह पाठ है। तथाहि ॥
शय्यासनोपधानानि शास्त्रोपकरणानि च ॥ पूर्व सम्यक् समालोक्य प्रतिलिख्य पुनः पुनः ॥१५॥
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