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तत्त्वनिर्णयप्रासादपूर्वपक्षः-कितनेक सुज्ञजन कहते और लिखते हैं कि, जैनमतवालोंके, जे जे, वेदवावत लेख हैं, वे सर्व, द्वेषबुद्धिपूर्वक मालुम होते हैं, सो कैसें है ?
उत्तरपक्षः-हे प्रियवर! जो जो वेदोंमें निवृत्तिमार्गका कथन है, सो सर्व जैनमतवालोंको सम्मत है. क्योंकि, जो जो युक्तिप्रमाणसे सिद्ध, संसारसे निवृत्तिजनक, और वैराग्यउत्पादक वाक्य, वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, स्मृति, पुराणदिकोंमें हैं, वे सर्व सर्वज्ञ भगवान्के वचन हैं. इस कथनमें श्रीसिद्धसेनदिवाकर, और श्रीभोजराजाका पंडित श्रीधनपालजी लिखते हैं।
यथा ॥ सुनिश्चितं नः परतंत्रयुक्तिषु स्फुरंति याः कश्चन सूक्तिसंपदः॥ तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिताजगत्प्रमाणंजिनवाक्यविपुषः॥१॥ उदधाविव सर्वसिंधवः समुदीरणास्त्वयि नाथ दृष्टयः॥ न च तासु भवान् दृश्यते प्रविभक्तसरित्स्विवोदधिः॥२॥ पावंति जसं असमंजसावि वयणेहिं जेहिं परसमया ॥ तुहसमयमहोअहिणो ते मंदा बिंदुनिस्संदा ॥३॥ भावार्थ:-हे नाथ ! हमने यह निश्चित किया है कि, परतंत्रयुक्तियों में अर्थात् परमतके शास्त्रोंमें जे केई सूक्तिसंपदा, श्रेष्ठ वचन रचना हैं, वे सर्व, हे जिन ! तुमारेहि चतुर्दशपूर्वरूप महासमुद्रसें ऊठे हुए, वाक्यबिंदु हैं.। तथा हे नाथ ! जैसें समुद्रमें सर्व नदीयें प्रवेश करती हैं, तैसें तुमारोविषे सर्व दृष्टिये प्रवेश करती हैं, परंतु तिन दृष्टियोंकेविषे आप नहीं दीखते हो. जैसें पृथक् २ हुई नदीयोंकेविषे समुद्र नही दीखता है. अर्थात् समुद्रमें सर्व नदीयें समा सक्ती हैं, परंतु समुद्र किसी भी एक नदीमें नहीं समा सक्ता है; ऐसेंही सर्व मत नदीयेंसमान है, वे सर्व तो, स्याद्वादसमुद्ररूप तेरे मतमें समा सक्ते हैं; परंतु हे नाथ ! तेरा स्याद्वादसमुद्ररूप मत, किसी मतमें भी संपूर्ण नहीं समा सक्ता है. । हे नाथ! असमंजस भी जे परसमय, जैनमतके विना अन्यमतके शास्त्र, जगत्में जिन
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