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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
यज्ञको धूर्त्तनिर्मित कहा है । ध्यानरूप अग्नि है जिसमें ऐसें जीवरूपकुंड में, दमरूप पवनकरके दीपित अग्निमें असत्कर्मरूप काष्ठके क्षेपन करे हुए, उत्तम अग्निहोत्र कर. । यूप करके, पशुयोंको मारके, रुधिरका कर्दम ( चिक्कड ) करके, यदि स्वर्ग में जाइएगमन करिये, तो नरकमें किस कर्मकरके गमन करिये ! ! ! ॥ तथा जैनसिद्धांत में भावयज्ञका स्वरूप ऐसा कहा है. । यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणोंको, हरिकेशबलमुनि यज्ञका स्वरूप कहते हैं । हिंसा १, मृषावाद २, अदत्तादान ३, मैथुन ४, परिग्रह ५, ये पांचो आनवद्वारोंको, पांच संवर, प्राणातिपातविरत्यादिव्रतोंकरके, इस नरभवमें आच्छादन करे - रोके; असंयमजीवितव्यकी इच्छा न करे, देहका ममत्व त्यागे, शुचि महाव्रतों में मलीनता न होवे, यह भावयज्ञ है. इसको यतिजन करते हैं. ।
ब्राह्मण पूछते हैं कि, हे मुने! इस भावयज्ञके करने के उपकरण कौन से हैं ? यज्ञ करनेका विधि क्या है? भावयज्ञ जो तेरे मतमें है, तिसमें अनि कैसा है ? अग्निके रहनेका स्थान कौनसा है ? शुचः घृतादिप्रक्षेप करनेवाली कडच्छी-चाटुआ कौनसा है ? करीषांग कौनसा है ? अग्निका उद्दीपक जिसकरके अग्निको संधु खाते हैं, सो क्या है ? इंधन कौनसे हैं ? जिनों करके अग्नि प्रज्वालिये हैं. । दुरितके उपशमन करनेका हेतु, ऐसा शांतिपाठ अध्ययनपद्धतिरूप कौनसा है ? और हे मुने! तूं किस विधि सें आहुतियोंकरके अभिको तर्पण करता है ? मुनि उत्तर देते हैं ॥
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" ॥ तवो जोई जीवो जोईठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मं संजमजोगसंति होमं हुणामि इसिणं पसथ्यं ॥ ' भावार्थ:- बाह्य अभ्यंतरभेदभिन्न बारां प्रकारका जो तप है, सो अनि है, भावेंधन कर्म दाहक होनेसें. जीव है, सो अग्निके रहनेका स्थान है; तपरूप अग्निका आश्रय जीव होनेसें. मन, वचन, कायारूप तीनों योग जे हैं, वे शुच है; तिन्होंकरकेही, घृतस्थानीय शुभव्यापार होते हैं.
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