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षोडशस्तम्भः। जिसने दोनों हाथों में बालकको धारण किया है ऐसीको प्रत्यक्ष सूर्यके सन्मुख लेजाके, वेदमंत्रको उच्चारण करता हुआ, माता पुत्रको सूर्यका दर्शन करवावे.॥
सूर्यवेदमंत्रो यथा ॥ “॥ॐ अह। सूर्योऽसि । दिनकरोऽसि । सहस्रकिरणोऽसि । विभावसुरसि। तमोपहोऽसि।प्रियंकरोऽसि।शिवंकरोऽसि । जगच्चक्षुरसि । सुरवेष्टितोऽसि । मुनिवेष्टितोऽसि। विततविमानोऽसि । तेजोमयोसि । अरुणसारथिरसि। मार्तडोसि। द्वादशात्मासि । वक्रबांधवोऽसि । नमस्ते भगवन् प्रसीदास्य कुलस्य तुष्टिं पुष्टिं प्रमादं कुरु २ सन्निहितो भव
अह॥"
ऐसें गुरुके पठन करे हुए, सूर्यको देसले, माता पुत्रसहित, गुरुको नमस्कार करे. गुरु पुत्रसहित माताको आशीर्वाद देवे.। यथा । आर्या ॥ सर्वसुरासुरवंद्यः कारयिता सर्वधर्मकार्याणाम् ॥ भूयात्रिजगच्चक्षुर्मगलदस्ते सपुत्रायाः॥१॥ सूतकमें दक्षिणा नहीं है. । तदपीछे गुरु स्वस्थानमें आयकर जिन प्रतिमाको और स्थापित सूर्यको विसर्जन करे. माता और पुत्रको सूतकके भयसें तहां जिनप्रतिमाके पास न लावे. । तिस दिनमेंही संध्याकालमें गुरु जिनपूजापूर्वक जिनप्रतिमाके आगे स्फटिकरूप्यचं. दनमयी चंद्रमाकी मूर्ति स्थापन करे, तिस चंद्रमाकी मूर्तिका शांतिकादिक प्रक्रमोक्त विधिकरके पूजन करे. तदपीछे तैसेंही सूर्यदर्शनरीतिसे चंद्रमाके उदय हुए प्रत्यक्ष चंद्रसन्मुख माता और पुत्रको ले जाके, वेदमंत्र उच्चार करता हुआ, मातापुत्र दोनोंको चंद्रका दर्शन करावे.॥
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