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सप्तविंशस्तम्भः।
४२३ पएवेमि" गुरु कहे “ पवेयह ” तदपीछे श्रावक परमेष्ठिमंत्र पढता हुआ, समवसरणको प्रदक्षिणा करे । और संघ पूर्वे दीने हुए वासांको, तिसके मस्तकोपरि क्षेपण करे. । गुरु निषद्याऊपर बैठे, वहांसें लेके वासक्षेपपर्यंत क्रिया, तीन वार इसहि रीतिसें करना.। फिर श्रावक क्षमाश्रमण देके कहे “ तुम्हाणं पवेइयं” फिर क्षमाश्रमण देके कहे “ साहूणं पवेइयं संदिसह काउसग्गं करेमि” गुरु कहे “करेह' पीछे श्रावक-सम्मत्ताइतिगस्स थिरीकरणच्छं करोमि काउसग्गं अन्नच्छ०--सागरवरगंभीरातक कायोत्सर्ग करे. पारके संपूर्ण लोगस्स कहे. । पीछे चारथुइवर्जित शक्रस्तवसें चैत्यवंदन करे.। तदपीछे श्रावक, गुरुको तीन प्रदक्षिणा देवे. पीछे निषद्याऊपर बैठा हुआ गुरु, श्रावकको आगे बिठाके नियम देवे.॥ नियमयुक्तिर्यथा । गाथा ॥
पंचुंबार चउ विगई अणायफलकुसुम हिनविस करे अ॥ महि अराइभोयण घोलवडा हिंगणा चेव ॥१॥ पंपुट्टय सिंघाडय वायंगण कायंबाणि य तहेव ॥
बावीसं दव्वाइं अभक्खणीआई सट्टाणं ॥२॥ अर्थः-गुलर, प्लक्षण, काकोदुंवरि, वट और पिप्पल, येह पांच जातिके फल ५. मांस, मदिरा, माखण और मधु, ये चार विकृति ४-एवं ९-अज्ञात फल १०, अज्ञात पुष्प ११, हिम (बरफ) १२, विष १३, करहे (ओले-गडे)१४, सर्वसञ्चित्तमिट्टी १५, रात्रिभोजन १६, घोलवडा-काचे दूध दहि छाछमें गेरा हुआ विदल १७, बइंगण १८, पंपोटा-खसखसका दोडा १९, सिंघाडे २०, * वायंगण २१, और कार्यवाणि २२, येह बावीस द्रव्य श्रावकोंको भक्षण करने योग्य नहीं है. ॥
* यद्यपि सिंघाडे अनंतकाय नही है, तथापि कामवृद्धिजनक होनसें वर्जनीय है. । तथा पुस्तकांतर, अन्यप्रकारसें २२ अभक्ष्य लिखे हैं । यथा ॥ पंचुंबरि ५, चउविगई ४, हिम १०, विस ११, करगे अ १२. सवमट्टी अ १३, राइभोयणगं चिय १४, बहुवीय १५, अणंत १६, संधाणा १७, घोलवडां १८, बिइंगण १९ अमुणियनामाणि फुल्लकलयाणि २०, तुच्छफलं २१, चलियरसं २२, वज्जेअ अभक्ख बावीसं ॥ इनका विस्तारसहित अर्थ जैनतत्त्वादर्शके अष्टम परिच्छेदसें जाण लेना.
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