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तत्त्वनिर्णयप्रासादतप, एक उपवास, और पंचवीस (२५) आचाम्ल करणे. । श्रुतस्तवमें एक उपवास, और पांच आचाम्ल. । चैत्यवंदनादि सूत्रमें यह उपधान कथन करा है.। तीर्थंकर गणधरोंने. ॥ ५ ॥ व्यापाररहित, विकथाविवर्जित, रौद्र ध्यानकरके रहित, विश्राम नहीं करता हुआ, उपयोगसहित, उपधान करे. ॥ ६॥ यह उत्सर्ग कहा. अब अपवाद कहते हैं. । अथ कदापि उपधानवाही बालक होवे, वा वृद्ध होवे, वा शक्तिरहित तरुण ( युवा ) होवे तो, सो अपनी शक्तिप्रमाण उपधानप्रमाण पूर्ण करे. । रात्रिभोजनकी विरति, चतुर्विधाहार, वा त्रिविधाहार, वा द्विविधाहार प्रत्याख्यानरूप करे; नवकारसहिआदि पञ्चक्खाण करके. । एक शुद्ध आंबिलकरके, और इतर दो आंबिलकरके, एक उपवास होता है. पणतालीस (४५) नवकारसहि करनेसे एक उपवास होता है. चौवीस (२४) पोरसि करनेसें, और दश (१०) अपार्द्ध करनेसें, एक उपवास होता है. तीन निविकृति करनेसें,
और चार एकलठाणे करनेसें, एक उपवास होता है. आचरणासें सोलां (१६) पुरिमार्द्ध करनेसें उपवास होता है. चार एकासनेसें, और आठ बियासणे करनेसें भी, उपवास होता है. अर्थात् उपवासका जो फल है, सोही प्रायः पूर्वोक्त तपका फल है. इसवास्ते जिसकी पूर्वोक्त उपधानकी शक्ति न होवे सो, इन तपोंमेसें किसी भी तपके करनेसें उपधान प्रमाण पूर्ण करे. ॥ ११ ॥ __गौतमस्वामी कहते हैं. हे भगवन् ! ऐसें करतेहुए प्राणीको बहोत काल होवे तो, कदापि नवकारवर्जित भी, तिसका मरण हो जावे, और नवकारवर्जित सो प्राणी अनुत्तर निर्वाण कैसे प्राप्त करें ? तिसवास्ते नवकार प्रथमही ग्रहण करो, उपधान होवे, वा न होवे. ॥ १३ ॥
महावीर स्वामी कहते हैं. हे गौतम ! जो प्राणी जिस समयमें व्रतोपचार ( उपधान ) करे, तिसही समयमें, तूं जिनाज्ञाकरके ग्रहण करा है व्रतार्थ जिसनें, ऐसा तिसको जाण. ॥ १४ ॥ ऐसें जिसने उपधान करा है, सो प्राणी भवांतरमें सुलभबोधि होवे है. और इसके ( उपधानके ) अध्यवसायवालेको भी, हे गौतम ! आराधक कहा है. परंतु हे गौतम !
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