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त्रिंशस्तम्भः ।
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प्रत्याख्यान चिंतन करे । पीछे चैत्यको प्रदक्षिणा करके, पौषधशाला ( उपाश्रय ) में जाकर देवकीतरें बडे आनंदसें साधुयोंको वंदन करे. सुंदरबुद्धिवाला होकर, पूजासत्कार करे । पीछे एकाग्रचित्त होकर साधुके मुख से धर्मदेशना श्रवण करे. पीछे मनमें धारा हुआ प्रत्याख्यान करे. पीछे गुरुको नमस्कार करके कर्मादानको अच्छीतरें त्यागके, धन उपार्जन करे. यथायोग्य स्थानमें व्यापार समाचरे. कुत्सित बुरा कर्म प्राणोंके नाश हुए भी न करना । पीछे अपने घरदेहरा में अर्हत्की मध्यान्हपूजा करके, अन्नपानी समाचरे. भक्तिसें साधुयोंको दान देके, अतिथीयोंकी पूजा आदरसत्कार करके, और दीन अनाथ मार्गणगणको संतोष, अपने व्रत और कुलके उचित भोज्य वस्तुका भोजन करे. ॥ साधुको आमंत्रण ऐसें करे. ॥
क्षमाश्रमण पूर्वक गृहस्थ कहें ।
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॥ हे भगवन् फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वथ्थकंबलपाय पुच्छणपडिग्गहेणं ओसहभेसज्ञेणं पाडिहेररुवेण सिज्जासंथारएणं भयवं मम गेहे अणुग्गहो कायो ॥ "
तदपीछे ( भोजनानंतर ) गुरुके पास शास्त्रका विचार करे, पढे, सुने । पीछे धन उपार्जन करके घरको जाकर संध्या पूजा करके सूर्यके अस्त होनेसें दो घडी पहिले, निजवांछित भोजन करे. सायंकालमें धर्मागारमें सामायिककरके पडाववश्यक प्रतिक्रमण करे. पीछे अपने घरमें आके शांतबुद्धिवाला हुआ, जब एक पहर रात्रि जावे तब अर्हत्स्तवादिक पढके प्रायः ब्रह्मचर्यव्रतधारी होके सुखसें निद्रा लेवे जब नींदका अंत आवे तब परमेष्टिमंत्रस्मरणपूर्वक जिन, चक्री, अर्द्धचक्री, आदिके चरितोंको चिंतन करे. और व्रतादिकोंके मनोरथ अपनी इच्छासें करे, ऐसें अहोरात्र की चर्या अप्रमत्त होके समाचरता हुआ, और यथावत् कहे व्रतमें रहा हुआ, गृहस्थ भी शुद्ध अर्थात् कल्याणभागी होता है. । इति तारोपसंस्कारे गृहिणां दिनरात्रिचर्या ॥
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