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सप्तविंशस्तम्भः ।
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ऐसें अगुरुमें गुरुकी बुद्धि- जैसें नींबमें आम्रकी बुद्धि । अधर्म यागादिमें जीवहिंसादिक, तिसके विषे धर्मकी बुद्धि- जैसें सर्पके विषे पुष्पमालाकी बुद्धि, सो मिथ्यात्व है. सम्यक्त्व सें विपर्यय होनेसें, अर्थात् साचे देवके ऊपर अदेवपणेकी बुद्धि, जैसें कौशिक ( घूअड) की सूर्यके तेजऊपर अंधकार की बुद्धि, साचे गुरुऊपर अगुरुपणेकी बुद्धि, जैसें फूलमालाके ऊपर सर्पकी बुद्धि । और साचे धर्मके ऊपर अधर्मपणकी बुद्धि, जैसें श्वेतशंख के ऊपर का कामलरोगवालेकी नीलशंखकी बुद्धि । तिसको मिथ्यात्व कहिये हैं. । सो मिथ्यात्व पांच प्रकारका है. १ आभिग्रहिक, २ अनाभिग्रहिक, ३ आभिनिवेशिक, ४ सांशयिक, ५ अनाभोगिक ॥
( १ ) प्रथम आभिग्रहिकमिध्यात्व, सो, जो जीव मिथ्या कुशास्त्रोंके पढनेसें कुदेव कुगुरु कुधर्मके ऊपर आस्था करके दृढ हुआ है, और ऐसा जानता है कि, जो कुछ मैने समझा है सोही सत्य है, औ
की समझ ठीक नही है, जिसको सञ्चजूठकी परीक्षा करनेका मन भी नहीं है, और जो सच्चठका विचार भी नही करता है. यह मिथ्यात्व, दीक्षित शाक्यादि अन्यमतममत्वधारीयोंको होता है. वे अपने मनमें ऐसें जानते हैं कि, जो मत हमने अंगिकार किया है, वोही सत्य है; और सर्व मत झूठे हैं. ऐसें जिसके परिणाम होवे, सो अभिग्रहिक मिथ्यात्व है.
( २ ) दूसरा अनाभिग्रहिकमिथ्यात्व, सो सर्व मतोंको अच्छा जाणे, सर्व मतोंसें मोक्ष है, इसवास्ते किसीको बुरा न कहना, सर्व देवोंको नम - स्कार करना, ऐसी जो बुद्धि, तिसको अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व कहते हैं. यह मिथ्यात्व जिनोंने कोइ दर्शन ग्रहण नहीं करा ऐसें जो गोपाल बालकादि तिनको है. क्योंकि, यह अमृत और विषको एकसरिखे जाननेवाले हैं.
(३) तीसरा आभिनिवेशिक मिथ्यात्व, सो जो पुरुष जानकरके झूठ बोले, प्रथम तो अज्ञानसें किसी शास्त्रार्थको भूल गया, पीछे जब कोइ विद्वान् कहे कि, तुम इस विषयमें भूलते हो, तब अपने मनमें
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