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चतुर्विशस्तम्भः।
३५१ ॥ अथ चतुर्विंशस्तम्भारम्भः॥ अथ २४ मे स्तंभमें उपनयनसंस्कारविधि लिखते हैं. ॥ तहां उपनयन नाम मनुष्योंको वर्णक्रममें प्रवेश करणेवास्ते संस्कारही वेषमुद्राके उद्वहनसें व २ गुरुयोंके उपदेशे धर्ममार्गमें निवेश (प्रवेश) करता है.। यदुक्तमागमे ॥
धम्मायारे चरिए वेसो सवच्छ कारणं पढमं॥
संजमलजाहेऊ साड्डाणं तहय साहूणं ॥१॥ अर्थः-धर्माचारके आचरण करते हुए वेष जो है, सो सर्वत्र प्रथम कारण है. श्रावक तथा साधुयोंको संजमलज्जाका हेतु है. ॥
तथा च श्रीधर्मदासगणिपादैरुपदेशमालायामप्युक्तम् ॥ यथा ॥ धम्मं रक्खइ वेसो संकई वेसेण दिक्खिओमि अहं ॥ उम्मग्रेण पडतं रक्खइ राया जणवऊव्व ॥३॥ अर्थः-वेष धर्मकी रक्षा करता है. क्योंकि, वेष होनेसें अकार्य करता हुआ मनमें शंका करता है कि, मैं दीक्षितवेषवाला हूं, मुझको देखके लोक निंदा करेंगे, इसवास्ते उन्मार्गमें पडते हुएकी भी वेष रक्षा करता है, जैसे राजा देशकी रक्षा करता है. ॥ तथा इक्ष्वाकुवंशी, नारदवंशी, वैश्य, प्राच्य, उदीच्य, इन वंशोंके जैन ब्राह्मणको उपनयन और जिनोपवीत धारण करणा.। तथा क्षत्रीयवंशमें उत्पन्न हुए जिन, चक्रि, बलदेव, वासुदेवोंको, श्रेयांसकुमार दशार्णभद्रादि राजायोंको, हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश, विद्याधरवंश, इन वंशोंमें उत्पन्न हुएको भी, उपनयन जिनोपवीतधारण विधि है । जिसवास्ते कहा है, आगममें,
"देवाणुप्पिआ, न एअं भूअं, न एअं भव्वं, न एंअं भविस्सं, जन्नं, अरहंता वा, चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा, पंतकुलेसु वा, किविणकुलेसु वा, तुच्छकुलेसु वा, दरिदकुलेसुवा, भिरकागकुलेसु वा, माहणकुलेसु वा, आयाइंसु वा आयाइंति वा, आयाइस्संति वा,
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