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त्रयोविंशस्तम्भः।
३४९ शुद्रादिकोंको ॥ ॥ॐ अहं तव श्रुतिद्वयं हृदयं धर्माविद्धमस्तु॥" ऐसें कहना.॥ तदपीछे बालकको यानमें बैठाके, वा नर नारी उत्संगमें लेके धर्मागारमें लेइ जावे; तहां पूर्वोक्त विधिसे मंडलीपूजा करके बालकको गुरुके चरणांआगे लोटावे. तब यतिगुरु विधिसें वासक्षेप करे.। तदपीछे बालकको घरमें ल्याके गृहस्थगुरु कर्णाभरण पहिनावे.। यतिगुरुयोंको शुद्ध चार प्रकारका आहार वस्त्र पात्र देवे. । गृहस्थगुरुको वस्त्र स्वर्णदान देवे. ॥ इत्याचार्यश्रीवर्द्धमानसूरिकृताचारदिनकरस्य गृहिधर्मप्रतिबद्धकर्णवेधसंस्कारकीर्तननामदशमोदयस्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिकृतोबालावबोधस्समाप्तस्तत्समाप्तौ च समाप्तोयं द्वाविंशस्तम्भः ॥१०॥
इत्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादग्रन्थे दशमकर्णवेधसंस्कारवर्णनो नाम द्वाविंशस्तम्भः ॥२२॥
॥अथ त्रयोविंशस्तम्भारम्भः॥ अथ २३ मे स्तंभमें चूडाकरणसंस्कारविधि लिखते हैं. ॥ हस्त, चित्रा, स्वाति, मृगशीर्ष, ज्येष्ठा, रेवती, पुनर्वसू, श्रवण, धनिष्ठा, इन नक्षत्रोंमें।१।२।३।५।७।१३।१०।११। इन तिथियोंमें। शुक्र, सोम, बुध, इन वारोंमें चंद्र वा तारेके बल हुए, क्षौरकर्म करणा. । पर्वके दिनोंमें, यात्रामें, स्नानसेंपीछे, भोजनसेंपीछे, विभूषापीछे, तीन संध्यामें, रात्रिमें, संग्राममें, क्षयतिथिमें, पूर्वोक्त तिथिवारसें अन्य तिथिवारमें, और अन्य भी मंगलकार्यमें क्षौरकर्म न करणा. ॥ क्षौरनक्षत्रोंमें स्वकुलविधिकरके चूडाकरण करणा मुनींद्र कहते हैं; परं गुरु, शुक्र और बुध यह तीन ग्रह केंद्र में १।४।७।१० होने चाहिये.। यदि केंद्रमें सूर्य होवे तो ज्वर होवे; मंगल होवे तो शस्त्रसे नाश होवे; शनि होवे तो पंगुपणा होवे; क्षीण चंद्र होवे तो नाश होवे.। षष्ठी (६), अष्टमी (८), चतुर्थी (४), सिनीवाली (चतुर्दशीयुक्तअमावास्या), चतुर्दशी (१४), नवमी (९), इन तिथीयोंमें और रवि, शनि, मंगल, इन वारोंमें क्षौरकर्म न करावणा.। धन २, व्यय १२,
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