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चतुावशस्तम्भः। क्षात्राणामथ वैश्यानां देशकालादियोगतः॥ त्यक्तोपवीतानां कार्यमुत्तरासंगयोजनम् ॥६॥ धर्मकार्ये गुरोईष्टौ देवगुर्वालयेऽपि च ॥ धार्यस्तथोत्तरासंगः सूत्रवत् प्रेतकर्मणि ॥७॥ अन्येषामपि कारूणां गुर्वानुज्ञां विनापि हि ॥
गुरुधर्मादिकार्येषु उत्तरासंग इष्यते॥८॥ अर्थः-सम्यक्त्वके संयुक्त द्वादश व्रत तैने धारण करने, और कुलका मद न करना. । जैन ऋषियोंकी, और जैन ब्राह्मणोंकी उपासना करनी; तथा गीतार्थाचीर्ण तप करना. । किसी पापात्माको निंदना नही, अपनी प्रशंसा न करनी, हित इच्छके ब्राह्मणोंको मान देना. । शेष चतुवर्णशिक्षाश्लोकमें कहे आचारको आचरण करना; उत्तरीयके परिभ्रंशमें, वा भंगमें उपवीतवत् जाणना. । व्रत करना, प्रेतकर्म करना, हे वृषलशूद्र ! उत्तरासंगकी अनुज्ञामें तैने यह युक्ति करनी. । देशकालादियोगसें त्याग न किया है उपवीत जिनोंने, वैसे क्षत्रिय और वैश्योंको, उत्तरासंग योजन करना.। धर्मकार्यमें, गुरुकी दृष्टिमें, देव और गुरुके मकानमें, तथा प्रेतकर्ममें, सूत्रकीतरें उत्तरासंग धारण करना.। और भी कारुयोंको गुरुकी आज्ञाके विना भी गुरुधर्मादिकार्योंमें उत्तरासंग इच्छते हैं. ॥ ऐसा व्याख्यान करके गुरु शिष्यको चैत्यवंदन करवावे. । परमेष्ठिमंत्रका उच्चार
और मंत्रव्याख्यान पूर्ववत् । इतना विशेष है. शूद्रादिकोंको 'नमो' के स्थानमें णमो' उच्चारण कराना. इतिगुरुसंप्रदायः । तदपीछे शिष्यसहित गुरु, उत्सव करते हुए धर्मागारमें जावे. तहां मंडलीपूजा, गुरुनमस्कार, वासक्षेपादि पूर्ववत् । तदपीछे मुनियोंको अन्न, वस्त्र, पात्र दान देवे. और चतुर्विध संघकी पूजा करे. ॥ इति उपनयने शूद्रादीनां उत्तरीयकन्यासोत्तरासंगानुज्ञाविधिः ॥
अथ वटूकरणविधिः-अथ बटूकरणविधि लिखते हैं. ॥ जिसवास्ते सम्यक् उपनीत, वेदविद्यासंयुक्त, दुःप्रतिग्रहवर्जित, अशूद्रान्नभोजन कर
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