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तथाच ॥
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सप्तविंशस्तम्भः ।
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बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् || उच्चारणाय तत्त्वज्ञैः सिद्धांतः प्राकृतः कृतः ॥ १ ॥
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और दृष्टिवाद बारमा अंग, परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वानुयोग ३, पूर्वगत ४, चूलिकारूप ५ पंचविध संस्कृतमेंही होता है, सो बालखीमूर्खको पठनीय नही है. संसारपारगामी तत्त्वउपन्यासके वेत्ता गीतार्थोनेही पठनीय है. शेष एकादशांग कालिक उत्कालिकादिशास्त्र योगवाहि साधु साध्वी और संयमिबालकोंके पढने योग्य हैं. इसवास्तेही अरिहंत भगवंतोंनें एकादशांगादि शास्त्र प्राकृतमें करे हैं. तिसवास्ते व्रतारोपमें भी, गृहस्थ बाल खी मूर्ख अवस्थाधारीयोंके, और तैसें यतियोंके भी, वचन, प्राकृमें है. ॥
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अथ मृदु, ध्रुव, चर, क्षित्र नक्षत्रोंमें प्रथम भिक्षा, तप, नंदि, आलोनादि कार्य करणे शुभ है. और मंगल, शनि, विना सर्व वारोंमें. । वर्ष, मास, दिन, नक्षत्र, लग्न शुद्धिके हुए, विवाहदीक्षा प्रतिष्ठावत्, शुभ लग्नमें गुरु तिसके घरमें शांतिक पौष्टिक करके, फेर देवघर में, शुभ आश्रममें, अन्यत्र, वा, यथाकल्पित समवसरणको स्थापन करे । तदपीछे स्नान करके स्वघरमें महोत्सवसहित आये हुए श्रावकको पूर्वाभिमुख गुरु, अपने वामे पासें स्थापके ऐसें कहे-कैसे श्रावकको सकक्ष श्वेत वस्त्र और श्वेत उत्तरासंग धारण किया है जिसने, तथा मुखवखिका हाथमें धारण करी है जिसने, तथा जिसकी चोटी बांधी हुई है, चंदनका मस्तकमें तिलक करा है जिसने, स्ववर्णानुसार जिनोपवीत, वा उत्तरीय, वा उत्तरासंग धारण किया है जिसने ऐसे श्रावकको - क्या कहे सो कहते हैं।
" सम्मत्तंमि उ लड़े टइयाइं नरयतिरियदाराई || दिवाणि माणुसाणि अमुरखसुहाई सहीणाई ॥ १ ॥
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